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कविता संग्रह

रुद्र समग्र

राम गोपाल शर्मा रुद्र


रुद्र समग्र

  • संपादक - नंदकिशोर नवल

 

 

शिंजिनी

रचनाओं के शीर्षकों की सूची:

1

रुद्र स्तवन

2

भूला राग

3

वह दिन

4

नयनों का सावन

5

दीपशिखा

6

हार-जीत

7

वैरागी का गीत

8

मंजर-गीत

9

प्रयाण-गीत

10

मलयोच्छ्वास

11

दुर्दिन

12

नया साल

13

पाटलिपुत्र के खंडहर से

14

नया वर्ष

15

होली

16

याचना

17

आज पहली बार

18

कवि से

19

पृथ्वी कीपुकार

20

मनुहार

21

साधना-गीत

22

पीर

23

सुधि का दीपक

24

?

25

काश!

26

मेरा क्या है?

27

भार

28

नाज़

29

जीत नहीं, हार

30

आँसू

31

प्रभाती

32

मंगलकामना

33

भोले कुसुम ! भूले कुसुम !

34

मानिनी से

35

भैरवी

36

वाणी-वंदन

37

आदेश

38

गुसाईं, आज तुम होते

39

जीवन-तरंग

40

ओ सैनिक

41

जागरण-गीत

42

पंछी बोले

 

 

 

रचनाएँ

रुद्र - स्तवन

हर हर मृडेश हे प्रलयंकर !

मदघूर्ण- निशामणि नर- कपाल

प्रज्वलित- नेत्र खप्पर- विशाल

तुम पुलक-पुलक धृत-मुंडमाल

उद्धत विराट ताण्डव- तत्पर।

तुम शुभ्र-वदन उज्ज्वल-निकेत,

गणपति-हिमाद्रि-तनुजा-समेत,

पार्षद-परेश ! बहु भूत-प्रेत

ले, प्रलय-राग के रचते स्वर।

परिधान-पिंग प्रिय व्याघ्रचर्म,

हो प्रथित रुद्र, भीष्मोग्र-कर्म

किसको अवगत हो सका मर्म?-

तुम प्रलयंकर भी हो शंकर।

मंदर-मंथन से जब विह्वल

उगला समुद्र ने हालाहल,

तुम जो न दया करते , शितिगल !

कैसे होते ये अमर, अमर?

क्षण भर उचटा चिर-योग-शयन,

खोला त्र्यंबक तुमने त्रिनयन,

प्रकटे स्फुलिंग, जल मरा मयन,

तुमको अजेय क्या, योगीश्‍वर?

तोड़ो समाधि फिर एक बार,

हिल उठें अद्रि, रवि हो तुषार,

प्रज्वलित चंद्र उगले अँगार,

काँपें त्रिलोक-जल-थल थर-थर।

फुंकार उठें पन्नग कराल,

फैले अग-जग में गरलज्वाल,

नाचे प्रमत्‍त हो प्रलयकाल -

दे ताल तुम्हारे डमरू पर।

विद्युत् द्रुतगति से तड़क-तड़क

अभ्रस्थ इरम्मद कड़क-कड़क

टूटें, अँगार उगलें निधड़क,

विध्वस्त विश्‍व हो क्षार-निकर।

हो अस्त-व्यस्त जगती समस्त,

टकराएँ ग्रह निज कक्ष-न्यस्त,

विधि-विष्णु मूढ़, विबुधेश त्रस्त,

चक्रांग चकित, काँपें खगवर।

हो रूढ़ि- राक्षसी का विनाश,

अंधी प्रतीती का त्वरित ह्रास,

तुम शिवस्वरूप फिर नव-विकास

के रचो नये युग, नव वत्सर।

मिट जाय द्वैत, फैलें शम् के

शुभ भाव पुन: 'हर हर बम्'के,

ऊँ 'सत्यं शिवं सुन्दरम्" के

मंजुल रव से हो विश्व मुखर।

1936

भूला राग

कोई छंदों के बंध का बंदी नहीं जो मैं अक्षर जोड़ता जा रहा हूँ

हर अक्षर है टुकड़ा दिल का, दिल टूटा हुआ मैं जुटा रहा हूँ ;

कोई गाना नहीं, यह एक फ़िसाना है जीवन का, जो सुना रहा हूँ

एक दर्द की रागिनी दाग़ों के काले सुरों पर आज बजा रहा हूँ।

एक वक्‍त था, एक जमाना हुआ, जब भाग पै फूला समाता न था,

मेरा छोटा-सा बाग यहीं कहीं था, जो कि नंदन को भी लगाता न था,

दुनिया से जुदा घोंसला था मेरा ; कौन था, देख के जो सिहाता न था !

ऋतुराज यहाँ बस आता ही था, और आता जो था, फिर जाता न था।

हँसता ही सदा दिन था रहता , चाँदनी की निशा मनभावनी थी,

जब रंग-बिरंगी खिली-खिलती कलिकाओं की टोली सुहावनी थी ;

नित रंग-रली-रत राग-भरे तितली-दल की जहाँ छावनी थी,

जहाँ प्रेम का राग अलापते-से अलि-बालों की गुंजित लावनी थी।

आज सूनी पड़ी वह बाटिका है, आशियाने का भी न ठिकाना है रे !

हरियाली नहीं वह लाली नहीं, यह प्रान्तर आज वीराना है रे !

न बहार ही कोई बहार यहाँ , न सुगंध का राजखजाना है रे !

दल पीले पड़े धूल में कहते , आज कोंपलों का यह बाना है रे !

सुख की मुझसे मत पूछो कथा , सुख का मुझसे तभी साथ छुटा,

जब हाथ में आये हुए सुख का विधिलीला से बेबस हाथ छुटा ;

देखता ही रहा, कुछ हो न सका, और जीवन का हर हार लुटा,

बाट जोहती-सी एक लालसा का दिल ही दिल में में अरमान घुटा।

दुख देख मेरा रो पड़ा आसमाँ ओस-बूँदों से आँसू बहाने लगा,

लालसा की समाधि पै रोता हुआ चाँद तारों के फूल चढ़ाने लगा ;

मेरी आहों के दाह से काला बना पिक दर्द- कहानी सुनाने लगा,

आग खाने चकोर लगा तब से, पपीहा 'पी कहाँ'गुहराने लगा।

आसमान में छेद हजारों हुए, चाँद के दिल में वह दाग बना,

दुख मेरा पयोनिधि के उर में बड़वा-सी भयंकर आग बना,

वह भाग बना, बिरही को मिला , और सूने सितारों का राग बना,

बेकली की निशा को रिझाते हुए बाँसुरी की कथा का बिहाग बना।

उसी भूले हुए राग के सुर को फिर आज जरा दुहरा रहा हूँ,

मुरझाया हुआ यह घाव कुरेद-कुरेद के ताजा बना रहा हूँ ,

एक आग, जो राखों के नीचे दबी है पड़ी , दिल फूँक जगा रहा हूँ,

वेदना की समाधि पै साधना का तप-दीपक एक जला रहा हूँ।

1935

वह दिन

आज भी वह दिन न भूला।

शीर्ण मानस में मनोरथपूर्ण जीवन आ भरा था,

और जब मरुलोक भी मधुसिक्‍त हो पाया हरा था,

चिर-प्रतीक्षा बाद मेरा बाग पहली बार फूला।

गंध-नी बह मंद शीतल गंध का करती वहन थी,

कूक पिक शुक सारिका की रागिनी करती सृजन थी,

टँग रहा था वृन्त पर ऋतुराज का हर ओर झूला।

एक दुनिया ही निराली थी, नयी पल-पल पुलक थी,

आप अपने सौख्य, स्वप्निल- राशि पर रोमालि ठक् थी,

शूल भी थे फूल, अपने में समाता था न फूला।

चल रही थी पाल सुख के तान लघु तरणी दुलारी,

शांत था सागर, जगत्पट पर खचित थी चित्रकारी,

बालशशि की तूलिका से था प्रकृति ने चित्र तूला।

आह ! तब सोचा न था, यह चार दिन की चाँदनी है,

धौरहर है धूम का, चाँदी नहीं , बालू-कनी है,

स्थिर जिसे था मानता, निकला वही जल का बबूला।

घिर घुमड़ सहसा लगे घन-घन गगन में शोर करने;

क्षुब्ध सुखसागर ; लगे खर-शर-सदृश हिमबिन्दु झरने ;

ले गया नौका भँवर में एक झोंके का बगूला।

नि:स्व यों मुझको बनाकर, फेंक कर अनजान थल में,

क्या मिला तुझको, हुई क्या वृद्धि तेरे सिद्धि-बल में?

कब न तुझको, भाग्य मेरे, था प्रबल मैंने कबूला?

1937

नयनों का सावन

मेरी पलकें क्या देख रहे? देखो मत नयनों का सावन।

जो देख सको तो देखो मेरे भाव, हृदय मेरा पावन।

आँखें तो हैं बरसाती नद,

जो आयी बाढ़, बहीं उन्मद,

भर आता बरसाती पानी,

तो धीरज की खो जाती हद ;

क्या देख रहे छिछले लोचन,

मिटते जिनके मोती बन-बन?

दिल की मेरी दुनिया देखो, देखो मेरे मन की चितवन।

बादल बनकर जो आते हैं,

मोरों को नाच नचाते हैं,

बिजली के सैन चला दिल पर

कितनों के वज्र गिराते हैं,

कैसे हैं ये घनघोर नयन,

काले ये दिल के चोर नयन !

आँखों में किन्तु पपीहे की, बस एक रूप - स्वाती-जीवन।

आँखों से धोखा होता है,

जीवन अपना घर खोता है,

कैसे कोई विश्‍वास करे?-

आँखें हँसतीं, मन रोता है ;

बदला करती हैं ये क्षण-क्षण,

क्षण में करतीं सर्वस्व- हरण,

आँखों में प्रिय ! क्या घूम रहे? आओ, देखो मन का उपवन।

तोता ज्यों आँख बदलता है,

आँखों का कौतुक चलता है,

थिरता इनमें कब आ पायी?

जो कुछ है, भृंग-चपलता है ;

निरखो मत हे मोहक नर्तन,

देखो इनका बस परिवर्तन,

काले इन पर्दों के भीतर देखो अपना ही रूप-सुमन।

1939

दीपशिखा

आग हूँ, मुझसे न खेलो।

तुम शलभ सुकुमार, कोमल दल तुम्हारे,

वृन्त पर झूला किये, खेला किये मृदु वल्लियों से

कल्पना की गोद में ; मीठी मलय की थपकियों ने

स्नेह से सिंचित किये कुन्तल सँवारे ;

दूर ही रहना, न छूना,

जल गया जो आप अपनी आँच में, उस काँच का मैं हूँ नमूना ;

आप अपने से छला मैं भगा हूँ, मुझसे न खेलो !

मैं जली, जलती रही, ज्वाला जलाये ;

ललकते लौ से लिपटने के लिए कितने सनेही

झूमते आये शलभ, दुर्लभ प्रणय-उपहार लाये !

जल मरे पल में मुझे देते दुआएँ;

और मैं टुक भी न डोली ;

वे मेरे बेबोल मेरी एक बोली के लिए, फिर भी न बोली;

जो जलाता ही रहा, वह त्याग हूँ, मुझसे न खेलो।

तुम चले हो आज मुझसे प्यार पाने?

स्नेह से ही जो जली, जिसका प्रणय परिताप बनकर,

शाप की बड़वाग्नि का उत्‍ताप बनकर जल रहा है ;

गरल से आये सुधा उपहार पाने?

प्रेम का परिहास हूँ मैं,

अविचलित ज्यों केतु हूँ अपने गगन का, दर्द का इतिहास हूँ मैं ;

दृष्टि ही जिसकी प्रलय,वह नाग हूँ, मुझ से न खेलो !

1941

हार- जीत

धार में छोड़ी मैंने नाव, तीर पर दुनिया रोती रही।

एक दिन इसी तीर पर कहीं,

कहीं से, अपने से अनजान,

किसी का लेकर व्याकुल प्यार

और बस भोलेपन का ज्ञान,

हवा के दामन में बेहोश,

चूमती लहरों की मुस्कान,

लगी आकर थी मेरी नाव

लिये कुछ गूँज, लिये कुछ गान ;

नाव में क्या-क्या था सामान- तीर पर चर्चा होती रही।

और तब मैं सहसा रो पड़ा

कि मैंने देखी दुनिया नयी,

लगीं लगती-सी, पहली बार,

जमातें नयी, बिसातें नयी ;

रूप की लगी हुई थी हाट- -

प्रेम बेहया, दया छलमयी- -

यहाँ आकर तो, हे भगवान !

देखता हूँ, पूँजी भी गयी ;

तीर पर दुनिया भर की आँख आँख में तीर चुभोती रही।

मगर जाना ही हो जिस ठौर,

वहाँ मर्जी की कैसी बात?

किसी ने चला दिया, चल पड़ा

चक्र-सा चलता मैं दिन-रात ;

नाव लग गयी किनारे-घाट,

उतरकर, जहाँ मिल गया दौर,

लगा दी मैंने वहीं बिसात ;

प्रीति मेरी, दुनिया के लिए रुपहले हार पिरोती रही।

मोल करने आये, मनचले,

न जाने कैसे-कैसे लोग,

किसी की आँखों में था लोभ,

किसी की बात- - नीतिमय रोग ;

मिले मुझको ऐसे उपदेश,

भरा जिनमें था केवल ढोंग ;

जानकर मुझे महज अनजान

किया सबने ठगने का योग ;

मुझे छलकर दुनिया की चाल आबरू अपनी खोती रही।

और अब आज विदा की घड़ी,

विदा उनसे, जो अच्छे लगे ;

विदा उनसे, जिनके अरमान

दु:ख में रात-रात भर जगे :

विदा उनसे भी, बनकर मीत

जिन्होंने मेरे मोती ठगे ;

विदा उन सपनों को भी आज,

आज तक जो पलकों से टँगे ;

तीर-सा चल तीर से तेज, तीर पर छाया सोती रही।

फलेंगे, निश्‍चय, बनकर पेड़,

कि बोये हैं मैंने जो बीज ;

छोड़ आया हूँ मैं जो राख,

बनेगी दुनिया का तावीज ;

प्रेम की आवेगी वह बाढ़

कि धो देगी जो गली-गलीज़ ;

रंग लावेगी मेरी हार

एक दिन बनकर जन की चीज़ ;

हारकर भी मैं हँसता चला, जीतकर दुनिया रोती रही।

1943

वैरागी का गीत

जीवन में जो भी प्यार मिला,

जन-जन से जो दुतकार मिली,

विजयी बन कर जो कुछ पाया,

उम्मीदों को जो हार मिली,

अरमान सँजोये थे जितने

बालू की नीर-लकीरों में,

वरदान मिले जो-जो जग से,

पीड़ा जो अपरम्पार मिली ;

मैं तोड़ चला सारे बंधन, सब छोड़ चला, जो प्यारा है !

लो, आज सभी कुछ लो, साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

वह एक बिन्दु-सी, जो मीलित

कलि के उर में अज्ञात पली,

उच्छलित-सिन्धु-शीतल-तल में

जो चिर अभाव की ज्वाल जली,

वह एक अतृप्त पिपासा-सी,

जीवन की मुग्ध निराशा-सी,

सीपी के सम्पुट में सिमटी

मोती-सी जो वासना ढली,

हलचल जिसकी पारा ढलमल, संयम शीशे की कारा है !

लो, आज वही ले लो, साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

सपने तो बहुत-बहुत देखे,

सुख-दुख भी बहुत जुगोये हैं,

जाने कितने अनमोल रतन

पाये हैं, मैंने खोये हैं,

उलझन के इन शैवालों में

छल-जालों में क्या-क्या न मिला !

फूले न समाये प्राण कभी

तो कभी फूटकर रोये हैं ;

मोती-मणियों से ही मैंने अपना यह गेह सँवारा है ;

पर आज सभी कुछ लो, साथी! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

थी चाह बड़ी, मैं भी देखूँ

दूबों की कोमल राह सखे !

थी चाह, सनेह-समुंदर की

मैं भी पा सकता थाह सखे !

पर चाव रहे मन के मन ही

मेरे बालू ही बाँट पड़ी,

छू मुझे बसंती झोंका भी

बन जाता लू का दाह सखे !

तूफान जहाँ कण-कण में है, यह वह अंत:सरिधारा है !

लो, आज सभी कुछ लो, साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है !

काँटे मेरे पग-चुम्बन को

मग में जो थे बेजार खड़े,

मेरी पावन पग-धूलि चढ़ा

सिर पर, लज्जा के भार गड़े ;

आँधी आयी, पर मैं न रुका,

तूफान उठे, पर मैं न झुका ;

चट्टान अड़ी, उखड़ी झंझा,

पग आगे ही कुछ और बढ़े ;

साथी ! यह तो वह जीवन है, संकट ही जिसे दुलारा है ;

पर आज सभी कुछ लो, साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

मेरा बल ही क्या था जो मैं

लहरों से होड़ लगा पाता !

साधन ही क्या थे प्राप्य मुझे,

जो मन की साध मिटा पाता?

फिर भी अनजान हिलोरों पर

बढ़ चली नाव झोंके खाती ;

कौतूहल था, तूफानों में,

देखूँ तो, क्या-क्या है आता ;

हर कष्ट झेल, हर विघ्न ठेल, अपनेपन से जो हारा है ;

वह अपनापन, यह लो साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

मेरी जितनी सामर्थ्य रही,

मुझसे जितना जो बन पाया,

मैंने तो यत्‍न किया, लेकिन,

फिर भी, न बनी कंचन काया ;

लोहा भी पारस को छूकर

तर जाता है बनकर सोना,

मेरे तो पारस भी निकले

मुट्ठी-भर मिट्टी की माया ;

फिर भी, मैंने समझा, मेरा सपना ही सत्य-सहारा है ;

यह सपना भी अब लो, साथी ! यह सब कुछ आज तुम्हारा है।

1941

मंजर - गीत

गाऊँ, कुछ गीत सुनाऊँ रे, मंजर हूँ, मधु बरसाऊँ।

मैं चूम-चूम दिनकर के कर ,पी सुधा-स्निग्ध शशि के शीकर,

वंदित वसंत की मौन-मुखर सुषमा के साज सजाऊँ रे !

मलयज-रानी के धर दुकूल, सौरभ से अपने स्वप्न तूल,

रचना पर अपनी भूल-भूल, झूलूँ, फूलूँ, मुस्काऊँ रे !

गर्वित रसाल, हर्षित तमाल, सुरभित वनांत, अंबर विशाल,

तितली रसज्ञकुल मधुपमाल, सबसे मैं रास रचाऊँ रे !

चूमें चिड़ियाँ मेरे मधु-कर, झूमें पल्लव मुझको पाकर ,

मेरी अनन्य-श्री भर दे स्वर अग-जग में, मैं इठलाऊँ रे !

सूने में नभ के बादल-दल, भू पर खेतों में दल श्यामल,

मेरे रागों से हों प्रांजल, मैं मन की बीन बजाऊँ रे !

कूके केकी कोयल पगली, पिहके पपिहा प्रति वनस्थली,

फूली न समाए कली-कली, मैं वह संदेश सुनाऊँ रे !

खिल-खुल खेलें जन प्रेम-फाग, रह जाय न कण-भर द्वेष-राग,

सब लाल-लाल, सब बाग-बाग, भागे विराग, मैं भाऊँ रे !

दो दिन की मेरी प्रेमकथा, हर ले अग-जग की मर्मव्यथा,

है मरण मर्त्य की प्रथा, मरूँ, पर अमराई भर जाऊँ रे !

1938

प्रयाण- गीत

बढ़े चलो जवान तुम, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

खड़ा विकट पहाड़ है,

मृगेन्‍द्र की दहाड़ है,

प्रचण्ड शैल-शैल पर

प्रपात का प्रहार है ;

परन्‍तु शृंग-शृंग पर

अडिग अभंग अंघ्रि धर

चढ़े चलो जवान तुम, चढ़े चलो, चढ़े चलो।

कि लक्ष-लक्ष विघ्ननदल

घिरे प्रलय-प्रबल-चपल,

रुके न तुम्हारे चरण

नवीन-कल्पना-सबल ;

उसी प्रकार आधि से

अनन्‍त विघ्न-व्याधि से

लड़े चलो जवान तुम, लड़े चलो, लड़े चलो।

घिरी कभी विकट अमा,

सशंक हो उठी क्षमा,

अशंक तुम चले, चली

चकित मरुत्परिक्रमा ;

उसी प्रकार, शक्‍ति-रथ

बढ़ा प्रबुद्ध, मुक्‍तिपथ

गढ़े चलो जवान तुम, गढ़े चलो, गढ़े चलो।

अनभ्र वज्रपात हो,

उदग्र चक्रवात हो,

अनल उगल रहे शिखर,

कुहान्‍ध आर्त्‍त प्रात हो,

परन्‍तु वज्रदेह-से,

अजेय गेह-गेह से

कढ़े चलो जवान तुम, कढ़े चलो, कढ़े चलो।

स्वतन्‍त्रताप्‍ति के लिए,

कलुष-समाप्‍ति के लिए,

समाज में सुनीति की

अखण्ड व्याप्‍ति के लिए,

ध्रुवैक लक्ष्य-अक्ष पर

अमोघ राष्‍ट्र-रश्मि-शर

जड़े चलो जवान तुम, जड़े चलो, जड़े चलो।

1944

मलयोच्छ्वास

श्रद्धा तो बहुत मिली जग से, थोड़ा-सा प्यार कहीं मिलता ! !

मैं जहाँ गया, 'जय हो, जय हो'वन-वन के पंछी बोल उठे,

दल-फल-किसलय-कलि-मुकुल-कुसुम खिल-खिल खुल-खुल

मुँह खोल उठे,

वन-वल्लरियाँ मकरंद-विकल, गुल्मिनियों का अंचल सरका,

दूबों का यौवन दमक उठा, मानस के सरसिज डोल उठे ;

आँखें तो बहुत मिलीं, लेकिन उर का उपहार नहीं मिलता।

फूलों की धूल-भरी शोभा सिहरन से सद्य: स्नात हुई,

रवि की अनुरागमयी नलिनी कुछ लाल हुई, अवदात हुई ;

मद-गंध-अंध मैं गंधवाह जिस ओर चला, रस-घट छलका,

छू दिया जिसे वह स्वर्ण हुआ ; छू गयी रात, मधुप्रात हुई ;

पर मैं जिसमें 'मैं'को छू लूँ, ऐसा अभिसार नहीं मिलता।

रोमांच हुआ सर में, सरि में, कुवलय-कुल के कल-केसर में,

मेरी सुख-सन्निधि से जागी रस-रंग-तरंग चराचर में ;

सबने जाना, मैं राजा हूँ, मस्ती का और जवानी का ;

नदियों ने केवल ज्वार लखा, ज्वाला देखी कब सागर में !

थम जाय जहाँ हलचल मेरी, ऐसा आधार नहीं मिलता।

थोड़ी-सी लू चल जाती है, संसार विकल हो जाता है,

वह मेरी ही अँगड़ाई है, जीवन जिसमें सो जाता है ;

संयम की भी हद होती है, कब तक मन को बाँधे कोई?

लाचारी है, खो जाता है, रो आता है, रो जाता है ;

दुनिया में तो रोने का भी खुलकर अधिकार नहीं मिलता।

1944

दुर्दिन

गरज रहा है आसमाँ,

प्रलय का बँध रहा समाँ,

घुमड़ रहे घटा-कटक

कि आज व्योम पर विजय किये अकड़ रही अमा।

हहर रहे पहाड़ पर

विटप नदी-कछार पर

कि मृत्यु आ गयी निकट

उजड़ न जाय जड़ उखड़ हवा के एक वार पर।

दिगंत अंधकारमय

दुरंत दु:ख-भारमय

घटाएँ दुंद बाँधके

बजा रही है दुन्‍दुभी प्रलय-प्रणाद एकलय।

हहास बाँधके पवन

हिला रहे लता-भवन

झुलस चुकी हैं क्यारियाँ

चमन-चमन में धूम है- - कृतान्‍त कर रहा हवन।

इधर जो नीड़ों में विहग

भयार्त्‍त शावकों से लग

परों में घर छिपा रहे

कि तार-तार हो रही है डाल-डालियों की रग !

उधर मरुत्प्रहार से

प्रपूर्ण जलविकार से

हिलोरे क्षुब्ध अब्धि के

चले प्रचण्ड युद्ध के तुरंगों की कतार-से।

अनन्‍त में गड़े हुए

नयन-नयन जड़े हुए

चकित, कि हो रहा है क्या

लगाते मेघ फेरियाँ, हवाओं पर चढ़े हुए।

कि तड़तड़ा उठी तड़ित्

दिगन्‍त हो उठे चकित

गिरा कहीं ज्वलल्लसित

सुरेन्‍द्र का प्रचण्ड दर्प-दण्ड उग्रता-भरित।

घहर घनन् घनन् घनन्

गगन के बज उठे भवन

भुवन में मौन छा गया

सिहर उठे धरा के रोम-रोम भीषिका-प्रवण।

समस्त सृष्‍टि-कल्पना

समस्त दीप्‍ति-ज्योत्सना

समस्त शौर्य-वीर्य को

लगा कि काठ मार गयी एक व्योम-भर्त्सना।

मुहूर्त्‍त-भर मही रही

प्रशान्‍त, ठगी-सी रही

जगे परन्‍तु शीघ्र ही

उदग्र चक्रवात, और काँपने लगी मही- -

न जाने हो रहा है क्या

पुन: डुबो रहा है क्या

बिड़ौजा, वज्र-समान ही

धरा के ग्राम-ग्राम को, घनों की पंक्‍तियाँ सजा?

कि आग-सी लगी वहाँ

बसे हैं देवता जहाँ?

धुँए के गोल उठ रहे

घिरा है घटाटोप कृष्‍णता से आज आसमाँ।

1944

नया साल

बीत गया, लो ! साल पुराना, नया साल फिर आया, साथी !

फिर पलकों के पुलिन पनीले, भाव-सिंधु लहराया, साथी ! !

कितनी देर कहाँ बिरमे हम

कितना क्या पाया रंजोगम

कहाँ-कहाँ पर अपने दिल को

रोया किये, मनाया मातम

भूल जायँ भूलें जो भी कीं, दाग-दर्द जो पाया, साथी !

हम भूले हैं, जग भूला है, भूलों की यह काया, साथी ! !

शूलों में संसार खिला है

शूलों में ही प्यार खिला है

जीत जिसे दुनिया कहती है

हारों का उपहार मिला है

डेग-डेग पर बिछी हुई है, यहाँ रूप की माया, साथी !

कहाँ-कहाँ क्या कहें कि हमको माया ने भरमाया, साथी !

जड़ तो जड़, जड़ता क्यों खोवे?

चेतन भी अचेत बन रोवे

जड़ता का यह भार विश्‍व

चाहता कि अब चेतन ही ढोवे

व्याप रही है चेतनता पर एक अचेतन छाया, साथी !

किस जादूगर ने जगती पर ऐसा जाल बिछाया, साथी !

नयी खोज का ज्ञान मिला है

ज्ञानी को विज्ञान मिला है

वैज्ञानिक को खोज-ढूँढकर- -

प्रतिमा में पाषाण मिला है

अब तो सत्य वही, जो तर्कों से आकर टकराया, साथी !

नये विश्‍व ने विश्‍वासों का नाम-निशान मिटाया, साथी !

कितना बदल गयी है दुनिया

सचमुच, एक नयी है दुनिया

हृदयहीन मिथ्याडम्बर की

छल-जंजालमयी है दुनिया

इस विकसित विज्ञान-लोक ने कैसा समय बुलाया, साथी !

जो न देखना कभी बदा था, ऐसा दृश्य दिखाया साथी !

एक साल, यह एक साल जो

बीत गया, यह विषमकाल, जो

गया, कयामत-सी बरपाकर

दुनिया का कर बुरा हाल यों

भूल सकेंगे क्या हम, इसने कैसा प्रलय मचाया, साथी !

भूल सकेंगे क्या हम, इसने क्या-क्या नाच नचाया, साथी !

कितने रौंदे गये देश, उफ् !

कितनों के लुट गये वेश, उफ् !

प्रकृति जहाँ इठलाती होती

अस्थि-भस्म हैं वहाँ शेष, उफ् !

दीन निहत्थों पर भी निर्मम बम्म गया बरसाया, साथी !

बच्चे, बूढ़े और युवतियों पर गोली की छाया, साथी !

'शांति''शांति'उसका भी स्वर है

जो अशांति का स्वयं निकर है

'न्याय''न्याय'उसकी पुकार है

स्वयं अनय पर जो तत्पर है

इस बीसवीं सदी ने, देखो, कैसास्वांग रचाया, साथी !

सभ्यवेशधारी प्रपंच ने कैसा लोह बजाया, साथी !

प्राणों का बलिदान करें जन

युद्धों का यशगान करें जन

एक इशारे पर दिवान्‍ध बन

तन-मन-धन कुरबान करें जन !

यही शांति का स्रोत समझ बैठा है जग बौराया, साथी !

मानव के शोणित को मानव का पिशाच अकुलाया, साथी !

नभ अनभ्र अब आग उगलता

जलनिधि जन-जलयान निगलता

कोने-कोने में पृथ्वी के

धू-धू रण का पावक जलता

वज्र- वसुधा पर पुन: प्रलयवर्षी बादल घुमड़ाया, साथी !

क्या न करेगा त्राण हमारा फिर मोहन मनभाया, साथी !

क्या उपदेश दिया गौतम ने !

'तम का अंत किया कब तम न?

वैर, वैर से कब जाता है?'

प्रीति-रीति क्यों खो दी हमने?

प्रियदर्शी का प्रेम-सँदेशा जग ने क्यों बिसराया, साथी?

क्यों शोणित के लिए, अकारण, मानव आज लुभाया, साथी !

1952

पाटलिपुत्र के खँडहर से

हे गरिमा के विस्मृत प्रतीक !

अरमानों की मूर्च्छित समाधि !

विधुरा विभवश्री के सिँगार !

प्रभुता के ओ कंकाल-शेष !

नि:शेष कलाओं के मजार !

महिमा- मंडित मागध अतीत की सुप्‍त प्रगति, चिर - निर्व्यलीक !

कितने युग आये और गये

तुम पर कितनी क्या छोड़ छाप ;

कितनों का सुख , कितनों का दुख

देखा है तुमने सपरिताप ;

देखा है तुमने बर्बरता का सभ्य वेश, शासन अलीक।

पर, सच कहना, हे वृद्ध, कभी

क्या ऐसा ही था समय हाय !

जब आज सदृश था मगध-लोक

इतना दरिद्र, इतना अपाय? - -

जन-जन जड़वत्, मन क्षत-विक्षत, जीवन प्रतिहत, सहते व्यलीक।

दाने-दाने को आज पड़े

लाले, बिललाते वृद्ध-बाल,

बस चटोरे चंटों के

अतिरिक्‍त बने सब ही कँगाल,

असमय चिन्ता-हिम से मुरझे यौवन-मानस-मुख-पुण्डरीक्।

तन-मन-जीवन प्रतिबद्ध वायु -

मंडल में आज विषाक्‍त बना,

खर-कूकर से भी हाय ! हीन -

तर राम-कृष्ण का भक्त बना ;

कुछ बोलो तो हे आर्य ! मिटेगी कब, कैसे , यह नियति-लीक?

हो रहे विफल सारे प्रयास,

होता जाता बल-धैर्य क्षीण ;

इस अंधतमस में भ्रान्त, पंथ

भी सूझ न पड़ता समीचीन ;

तुम इतना तो बतला दो हे, है कौन सफलता- सरणि ठीक।

संकेत मात्र तुम दे दो, हे

अनुभवी, मगध के मौलि-मौर !

हमको बस आवश्यकता है-

तुम 'हाँ'कह दो, बस कुछ न और ;

हे साधु ! विलोको, तत्पर हैं नवयुग के ये अगणित अनीक।

तुम तो सुनते हो अहोरात्र

सुरसरिता का वह स्वर-सँदेश-

पाटली-पुत्र ! रे सुप्त सिंह !

उठ, जाग, बचा पतयालु देश -

फिर भी, यह कैसा मौन? लाज-भय कैसा यह? हे चिर-अभीक !

जागो, ओ गरिमा के प्रतीक !!

1937

नया वर्ष

लो, नया वर्ष फिर आया, गौरी, नया वर्ष फिर आया।

कुछ हास और कुछ रोदन -

ये एक मोह की धूप-छाँह के दो स्वरूप,

माया के ये कौतुक अनूप -

जगमग जिनसे जग-जीवन ;

गिन जो, जो द्रव्य कमाया, गौरी ...

भूलों की भूल कहानी,

कर दूर भूत का ध्यान, लुटा मानापमान,

करना प्रशस्त पथ वर्तमान

कितना कठोर? कल्याणी !

पर मुझे यही मनभाया, गौरी ...

क्यों करें भविष्यत् चंचल?

मेरे कर में जब वर्तमान, विधि का विधान,

गति-गत में ताण्डव- तड़ित्‍तान,

मैं सृष्टि-डमरुधर केवल,

कब देखें विघ्न घबराया? गौरी...

करता विनाश पर त्राटक,

मैं 'रुद्र'तोड़ता दुरित-दुर्ग सोल्लास तूर्ण,

करता विकीर्ण दृग-अग्नि-चूर्ण,

रचता नवीन-युग-नाटक ;

किसने न मुझे सिर नाया? गौरी ...

1939

होली

कहाँ गयी अब वह होली री, कहाँ गयी अब वह होली?

होली खेली थी रामचन्द्र ने, लंका क्रीड़ाभूमि बनी,

जब रीछ-वानरों के सँग भी संगठित- शक्ति की भंग छनी,

अन्यायों की होलिका जली, रिपु-मुंड उड़े चिनगारी-से,

जयध्वनि होली-धम्मार बनी, रँग गयी रक्‍त से रण-अवनी ;

होली वह थी, जिसने बरसों की दिली गाँठ उनकी खोली,

उर-उर में कब से पड़ी गाँठ क्या खोल न देगी वह होली?

होली खेली थी वीर पार्थ ने, कुरुक्षेत्र था रंगस्थल,

योद्धादल होली का जुलूस था, पिचकारी गांडीव विकल,

अबरख-से बाण बरसते थे, कुंकुम-से कटे मुंड लुटते,

हर एक सूरमा जंग-रंग की भंग डटाये था पागल ;

जब काल-पात्र की लाली में हर दिल ने कालिख थी धो ली,

कालों को लाल बनानेवाली कहाँ गयी अब वह होली?

होली खेली थी बुद्धदेव ने , बोधगया- वटवृक्ष तले,

ज्ञानाग्नि प्रज्वलित हुई और जर्जर भव के भ्रमजाल जले,

बस प्रेम अहिंसा की लय में बजने ऐसा धम्मार लगा,

'बुद्धं, धम्मं, संघं शरणं अनुगच्छाम: स्वर-स्रोत चले !

निर्वाण-लुब्ध कोने-कोने से निकली होली की टोली,

भिक्षुक भगवान् बने, भूपों के कर में थी भिक्षा-झोली।

हल्दीघाटी की होली का किस आर्य-हृदय को है न दाप?

कैसे भूला जा सकता है वह अमर खिलाड़ी श्री प्रताप?

झालों समान तलवारें थीं, करताल ढाल के बजते थे,

'बम् बम् हर हर'का फाग मचा ढोलक-ध्वनि चेतक- चटक- टाप !

वह स्वतंत्रता की भंग, त्याग की मिश्री थी जिसमें घोली,

पी लो, पी लो, ओ नौनिहाल ! पी लो, खेलो असली होली !!

अब द्वेष-फूट के काठ कटें, कायरता की होलिका जले,

हर जोर-जुल्म की धूल उड़ाता दलित-वर्ग जय बोल चले ;

आग्रह हो सत्य-अहिंसा से रँग देने का दानवता को

बलि-भाव-भंग पी, रंग-अंग, घर-घर से निकल चलें पगले ;

होवे मंगल का अनुष्ठान, प्रति भाल जड़ी हो जय-रोली,

ओ अलबेले माँ के सपूत, खेलो, खेलो ऐसी होली !!

1936

याचना

जीवन को भर दो प्राणों को यौवन से भर दो -

शक्‍ति हे, शिंजन से भर दो।

जाग उठे मेरा पौरुष-बल,

साहस हो मेरा पथ-संबल,

ऊज् र्जस्वित स्वर से मेरे उर को उर्वर कर दो।

विद्युन्मय होवें मेरे पग,

मेघोन्मन होवे मेरा मग,

मेरा पग-जल पाने का इन काँटों को वर दो।

जग की हो जो भी कठिनाई,

खड़े कूट, कंटक या खाई,

मेरे निर्झर के मग में सब शैल उठा धर दो।

तोड़ चले, मेरा अप्रतिहत

निर्झर गति के बंध , गतागत,

मैं माँगूँ, मेरे चलने को दुर्गम ही स्तर दो।

जड़ की भी जड़ता हर लूँ मैं,

चेतन की सत्‍ता भर दूँ मैं,

शालिग्राम बनें जो,मुझको ऐसे पत्थर दो।

मरे जीर्ण मेरी कायरता,

जाग्रत् हो जीवन-तत्परता,

नीलकंठ शंकर बनने का वर, हे सुंदर ! दो।

1941

आज पहली बार

आज पहली बार -

पौरुष का निराशा कर रही रे क्रूरतम परिहास,

रोके सफलता का द्वार ;

-- आज पहली बार।

फैला सामने फेनिल गरजता नील पारावार,

घिर घिर घहरता घनघोर अंबर में सघन-संहार ;

असफलता-पिशाची का कभी सुनता विहासोल्लास,

इस तम-सिन्धु के उस पार ;

-- आज पहली बार ।

भीषण रात, यह बरसात, विकट प्रपात, झंझावात,

चारों ओर से जैसे मना करती मुझे हर बात ;

जाने क्यों हृदय में आज पैदा कर रहा है त्रास

विद्युत् का विकट चीत्कार !

-- आज पहली बार ।

छोटी नाव, सिन्धु अशांत, भीषण ध्वान्त, मैं एकान्त- -

पर डर क्या? हिचक कैसी? पुरुष हूँ, और यों भयक्लांत?

ना, इस तीर पर क्या सोच? मैं हूँगा न विमुखप्रयास ;

नौका ले चलूँ मझधार ;

-- आज पहली बार ।

1941

कवि से

यह कैसा सम्मान तुम्हारा?

लक्ष्य लुट रहा आज भक्ष्य पर, मान है कि अपमान तुम्हारा?

तुमने जड़ता में जीवन भर

कभी मर्त्य को किया स्वर-अमर,

बने क्रांति-पथ के तीर्थंकर ;

और आज, बन सौख्य-भिखारी, भटक रहा अरमान तुम्हारा।

तन का हर अभिशाप ठेलकर,

मन का भीषण ताप झेलकर,

तूफानों में बढ़े, खेलकर,

मगर आज यह मकड़जाल क्यों जकड़ रहा अभियान तुम्हारा?

अपने प्रण पर अड़े रहे तुम,

हर आफत से भिड़े, लड़े तुम

ऐसा, लेकिन, आज सड़े तुम,

मिट्टी को भी घिना रहा है, मिट्टी बन अभिमान तुम्हारा।

तुमने अपनी टेक तोड़ दी,

कठिन कर्म की राह छोड़ दी,

किधर प्रगति की धार मोड़ दी !

हस्ती को बरबाद कर रहा, बदमस्ती का गान तुम्हारा।

तुम पर लगे हुए थे लोचन,

जन-जन के तुम ही थे जीवन,

तुम ही थे भव के भ्रम-मोचन,

और आज तुम स्वयं भ्रान्‍त हो, भ्रान्‍ति बन रही ध्यान तुम्हारा।

जागो, अहो क्रान्‍त के द्रष्टा !

जागो, अहो क्रान्‍ति के स्रष्‍टा !

जागो, ओ युग-युग के त्वष्‍टा !

कब से जगा रहा है जग को नवयुग का दिनमान तुम्हारा।

1944

पृथ्वी की पुकार

मेरी ज़बान लाचार।

उर पर पत्थर धर मौन सहूँ सब भार,

ओ क्रूर नियति ! क्या यही तुझे स्वीकार?

रे यह भीषण संहार -

और मैं देखूँ, अपने ही घर में, विस्मय की आँखें फाड़?

मेरी ज़बान लाचार।

वक्र शनि के अवतार !

ओ मेरी गोदी के कलंक !

पथ-भ्रष्ट-पंक !

ओ मूर्तिमान आतंक !

भाई भाई के शोणित से है आज लाल करता अपनी तलवार,

यह कैसी होली, कैसा त्योहार?

मेरी ज़बान लाचार।

अरे, यह ताण्डव-नर्तन !

यह महाकाल के ताल-ताल पर प्रलय-विवर्तन !

धन्य परिवर्तन !!

कहाँ हो तुम? ओ युग के मंत्र, अनघ अघमर्पण !

विश्‍व के दर्शन !

सत्य शिव सुन्दर के हर्षण !

आज देखो यह दर्पण।

आज मानव की देखो टेक,

ध्वंस ध्रुव एक, --

एक से ही जो हुए अनेक,--

भयंकर भीषण -

सजी अपनी ही फुलवारी पर करते हैं प्रमत्‍त से हाय !

वज्र-विद्युन्मय वर्षण !!

--सृष्टि की हार।

मेरी ज़बान लाचार।

कठिन संहार !

ओ स्वार्थ अर्थ के दस्यु ! धृष्‍ट -

रे विश्‍व- विकार !

मेरे सारे पापों के पुंजीभूत -

नाश के दूत -

उग्र उपहार !

आज तेरा ही युग, तेरा ही कीर्ति-प्रसार,

सभ्यता की दुनिया में होता है सत्कार !

--आह ! व्यभिचार !!

मेरी ज़बान लाचार।

मैं मौन सहूँ सब भार?

यह अनाचार, अत्याचारों का तार !!

कौन करे उपचार?

मेरी छाती पर मूँग दली जाती है,

गर्दन जड़यंत्रों से कुचली जाती है,

प्रतिफलित हुए हैं मेरे ही उपकार !

अपने ही सुवनों के हाथों यह श्रद्धांजलि !

कुछ फूल नहीं, चढ़ते जलते अंगार !

कब तक, कब तक, दुर्दैव ! बोल तो -

मौन सहूँ सब भार?

मैं मौन सहूँ यह भार?

मेरी ज़बान लाचार।

1940

मनुहार

ओ कलाकार की काव्य-कला कल्याणी !

टुक बोल,बोल,

री स्वर-किलोल !

अनमोल पँखुरियाँ खोल,

पतझरमेँ मेरी आज, सुधामयि ! जीवन का मधु घोल,

टुक बोल प्रेम की वाणी,

ब्रह्माणी !

ओ कलाकार की काव्य-कला कल्याणी !

हर एक डगर,

छवि से दे भर,

लहरा रस-रूप-लहर,

मरु को भी तू कर दे अपने मधु के कण से ऊर्वर,

बरसा करुणा का पानी,

वरदानी,

ओ कलाकार की काव्य-कला कल्याणी !

जग दीन-दलित,

दुख-द्वंद्व- गलित,

अपने ही पापों से पीड़ित,

आश्रित है तेरे द्वार आज, खोकर अपना जीवन-अमृत ;

दे मान उसे, हे मानी !

गीर्वाणी !

ओ कलाकार की काव्य-कला कल्याणी !!

1940

साधना - गीत

तुम साधना बनो, अनंत साधना बनो।

मत सिद्धि बनो, देव ! मुझे यह न कामना,

तुम साध्य ही रहो, बनो न तृप्‍ति-यातना ;

आराध्य बनो, पर न फलाराधना बनो।

तुम छंदहीन हो, अमंद छंद में बहो,

तुम काव्य बनोप्राण के, उमंग में रहो ;

तुम राग बनो, पर विराग-तार से छनो।

गर्वित मृणाल पर प्रफुल्ल पद्‍म-से बसो,

मानस-विलास में अपंक हंस-से लसो ;

अपरूप बनो रूप, पर कुरूपता हनो।

तुम तान तान के वितान सर्जना करो,

उन्मुक्‍त अन्त-अन्त में अनंत स्वर भरो ;

पर दर्प- दुर्ग पर सुरेन्द्र-दण्ड बन तनो।

तुम हे उदार ! ताप बनो, ताप बने रहो ,

उर-वर्ति रहो, चिर- सनेह में सने रहो;

जलते रहो, पतंग-पात मत गिनो-गनो।

1938

पीर

हलाहल का भीषण उत्ताप

विषम बड़वा की दु:सह ज्वाल

नीलिमा का मार्मिक परिताप

नियति की उलझन का शैवाल

छिपाये लहरों में गंभीर

पालता जलनिधि किसकी पीर?

भ्रमित सूनेपन में अविराम

धरे छाती पर इतना भार

विकल किसका रटती-सी नाम

भरे अन्तर में हाहाकार

तपन के सहती तीखे तीर

पालती धरणी किसकी पीर?

विकल किसके उर का यह ज्वार

पहाड़ी प्रान्त-वनों में फूट

चला-निर्झर-'हर हर'उच्चार

सजल-से किन नयनों से छूट,

विकट प्रस्तर के पट चीर,

पालता किस निर्मम की पीर?

कुटिल रेखाओं का विधि-जाल

भाल-भू पर यह पर्वतमाल -

हठी योगी, समाधि में लीन,

साधना का कठोर व्रत पाल -

मौन यह कौन, प्राण- प्राचीर

बाँध शत-शत रहस्य की पीर?

छाँह में जिसकी सुभगस्फीत

विश्‍व पाता करुणा की वृष्टि,

उसी की आकृति कातर-भीत,

बनी सूनी किस दुख से दृष्टि?

नयन में भर नीलम-सौवीर

पालता अम्बर किसकी पीर?

भरी आँखें, भारी-सा कण्ठ,

भरे किसकी बिजली-बिरहाग,

चकित, किसका पाकर संकेत,

भरे स्वर में कैसा यह राग,

आँक उर में श्यामल तस्वीर

पालते बादल किसकी पीर?

मुझे भी जाने क्यों अनजान

पड़ गयी है कुछ ऐसी बान,

विभव भव का लगता विषपान,

वेदना ही शाश्‍वत निर्वाण,

पीर दी है जिसने बेपीर,

उसी के प्राण, उसी की पीर।

मरण- जीवन का यह अभिमान ,

तुम्हारा एकमात्र अभिज्ञान,

प्रवासी की पूँजी-शृंगार -

देव ! तुमसे ही पाया दान,

छील लेना न इसे, हे धीर !

बनी रहने दो मेरी पीर।

1937

सुधि का दीपक

मेरे मन-मंदिर में सुधि का दीपक जलता रहा रात भर।

एक सुनहला दीप कि जिसमें था भरपूर सनेह,

बाती जगी प्रेम की जगमग, जगमग तम का गेह ;

मेरी चाहों के पतंग को दीपक छलता रहा रात भर।

धीमे-धीमे थी बयार चल रही कि ठंढी साँस,

भरे फूल-आँसू छलछल था आँखों का आकाश ;

अपने सपनों की समाधि पर दीपक बलता रहा रात भर।

ऐसी एक प्यास, पानी में जैसे प्यासी मीन,

जीवन की लौ लगी जगी थी सपनों में लौलीन ;

अपने प्रियतम के साँचे में दीपक ढलता रहा रात भर।

अपना तो यह भाग कि होकर सत्य हो गया, झूठ,

प्रिय तो क्या, प्रिय कासपना भी आज गया है रूठ ;

सपना सच हो जाय, हठीला दीप मचलता रहा रात भर।

1943

?

कौन तुम, हे रूप के अवतार !

इस विजन- वन- वल्लरी के

वृन्‍त पर निर्भर--परी के

वक्ष पर अंकित प्रणय के चित्र--स्वप्न- कुमार !

बेध दु:ख-तिमिर-चिकुर-घन

सुख-विभास-वदन-सुधाधन--

बंधनों में सत्य-दर्शन--क्या हुआ साकार?

या, चिरन्तन वेदना के

ताप से कंचन बना के,

साधना लाई किसी के प्रेम का उपहार?

कुंज के स्वप्निल नयन में

हास से मुखरित शयन में

प्रकृत के उर में सजग तुम कौन, किसके प्यार?

1940

काश !

मैं भी काश ! नयन के मन को जीवन में अपना कर पाता !!

मैं भी हँसता हँसी फूल की, आँखों में ऋतुराज चुराकर,

अपने में फूला न समाता, किसी हिये का राज चुराकर,

मेरे मन की खुशी चहकती नयन-नयन के आसमान में,

मन-मन की गुनगुन बन जाता , मेरा जीवन भी जहान में ;

मैं भी आज तुम्हारे मुख-सा, शोभा से, सुख से भर जाता।

फूटी पड़ती अंग-अंग में, कलियों की बेचैन जवानी,

माठी-मीठी गंध साँस में , प्राणों में फूलों की वाणी,

मेरी भी पलकों पर मोहे, नए-नए सपने मुस्काते,

तारे आसमान के टिमटिम, नए-नए सन्‍देश सुनाते,

मेरा चाँद गगन में उगता, दुनिया का सागर लहराता।

1943

मेरा क्या है?

मन मेरा है, और तुम्हारा ही गुणगान किया करता है।

मेरे तन की साँस न अपनी, करती है अपनी मनमानी,

मेरे अपने नयन न अपने , करते ही रहते नादानी ;

मेरा अपना हृदय तुम्हारा ही तो ध्यान किया करता है।

अपना रह क्या गया, नयन भी सूने में बेडोर जब उड़े,

और पखेरू प्राण अचानक उड़े, अजाने कहीं जा जुड़े,

सपनों का भी चाव तुम्हारी ही मुस्कान पिया करता है।

उजड़ गया वह बाग, और दिल में नीला यह दाग रह गया ;

रहे न वे कुछ राग, महज करुणा का एक बिहाग रह गया ;

मुड़कर मेरा बाण मुझी पर अब संधान किया करता है।

आँखों की दो बात आज केवल कहने की बात रह गयी,

सपना हुआ बिहान, सितारों की सूनी-सी रात रह गयी ;

कोकिल-स्वर यह प्राण तुम्हारा ही आह्‍वान किया करता है।

मेरा लेकर साज आज ऋतुराज मुझे ही ललचाता है,

मेरी ही बूँदों का बादल बूँद-बूँद को तरसाता है ;

लेकर मेरी मौत, काल भी साँझ-बिहान किया करता है।

1943

भार

कैसे इतना भार सम्हालूँ?

अवहनीय तेरा करुणा-कण,

दुर्बल-पद मेरा दुर्बल मन,

यह वरदान अबल कंधों पर कैसे और भार उठा लूँ?

दूर न जाने कितना जाना,

और, पंथ भी तो अनजाना,

थके पाँव, पथ का हारा मन, कैसे धीर बँधा लूँ?

बालू का थल, कहीं न पानी,

सूखा कण्ठ, तृषाकुल वाणी,

नयनों की मदिरा पी-पी, पी ! कैसे प्यास बुझा लूँ?

पिछल जायँ जो पग अनजाने,

गिर जाए यह भार अजाने,

जग हँस देगा, तू हँस देगा ; अपनी हँसी करा लूँ?

धड़क रही साहस की छाती,

सम्हल नहीं पाती यह थाती,

थककर बैठ रहूँ पथ में क्या? कायर भीरु कहा लूँ?

सुधि जलती है, पथ जलता है,

आतप भी जल बन छलता है,

बचा हुआ आँखों का पानी भी क्या आज जला लूँ?

आज याद भी काँटे बनकर,

रोक रही गति का अंचल धर,

कुछ ऐसा कर दे, मैं अपनी सारी याद भुला लूँ ;

प्रिये हे, सारी याद भुला लूँ !!

1941

नाज़

खोकर भी तुमको खोने का नाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।

तुम आये, मधुमास पधारा, लाल-लाल फूटे प्रवाल-दल

और, आज यह भी दिन है, जब रंग न रूप न राग न परिमल ;

पतझर में भी आज मगर वह साज नहीं मैं खो पाया हूँ।

तुमने खेल जिसे समझा था, खेलों की ही मौत हो गयी,

रोती ही रह गयी जवानी, एक कहानी सौत हो गयी,

मन की लाज गयी, पर दिल का राज नहीं मैं खो पाया हूँ।

घायल मेरा प्राण-पखेरू उड़ने से लाचार हो गया,

ऐसा तीर तुम्हारा आया, लगा, और उस पार हो गया ;

तीरन्‍दाज़ ! तुम्हारा वह अन्‍दाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।

मैं क्या जानूँ गीत और धुन? तुम से ही सब कुछ पाया था,

दुहराता हूँ आज वही लय सुर से जो तुमने गाया था ;

राग नहीं रह गये, मगर आवाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।

1943

जीत नहीं, हार

तुम जीत इसे कह लो, मालिक, लेकिन यह हार तुम्हारी है।

दिन बुरे गये, दिन भले गये, दुनिया भर से हम छले गये,

क्या हुआ, हमारे फूल अगर पैरों के नीचे दले गये?

कुछ दाँव भले हम हार गये, बाजी हमने कब हारी है?

यह तो वह जाल तुम्हारा है, तुमने ही जिसे पसारा है,

कट गयी तुम्हारी नाक, और तुम खुश हो, क्या दे मारा है;

जो यों सर पर चढ़कर बोले, उस जादू की बलिहारी है !

जाने क्या कितने वार सहे, हमने ओले-अंगार सहे,

आफत के टूट पड़े पहाड़, हम जीते ही हर बार रहे ;

फिर यह तुमने जो देखा है, वह तो भूमिका हमारी है।

इंसाफ हमारा भी होगा, ईमान कहीं न कहीं होगा,

इतिहास कहेगा, सचमुच सूर सहज था कौन महज़ धोखा ;

किस करवट बैठे ऊँट अभी जाने किसकी क्या बारी है ! !

1944

आँसू

हे सुकुमार !

विधुर-हृदय के एकमात्र धन, शुचि शृंगार !!

दीन-दृगों के रत्‍न-रूप तुम,

चंद्रकांत-उर-द्रव-स्वरूप तुम,

नयन-गगन-विकसित-सित-उडु-सम,

निशा-प्रिय के हार !

परमहंस के प्रमागार हो,

भक्‍त-प्रवार के प्रेम-तार हो,

बिन्दु-रूप में निराकार हो -

परमेश्‍वर साकार।

सत्कवि की हे विशद कल्पने !

पुलक-प्रेम-करुणा के सपने !

बने रहो युग-युग दृग-द्वय में,

चिर-तप के उपहार !!

1935

प्रभाती

रात गई, अब जागो।

मरण-सेज छोड़ो अब सत्वर,

अरुणिम किरण-कूल से भर-भर

पान करो जीवन जड़ताहर,

लघुकर तन्द्रा त्यागो।

माँग रहे जीवन जड़-जंगम,

मुग्धमना मंगल-सुख-संगम,

तुम केवल अविकल श्रम-संयम

अपने प्रभु से माँगो।

पूर्णतेज दिनमणि, लो ! आया,

अपने साथ सत्य-युग लाया।

छोड़ो, पुरुष, स्वप्न की माया,

चलो, काम पर भागो।

1939

मंगलकामना

यह नया वर्ष मंगलमय हो।

कण-कण में हो छवि का प्रकाश,

मन-मन में शुचि आनन्द-वास,

तन-तन में नूतन स्फूर्ति-तेज,

हो अधर-अधर पर सुमनहास,

क्षण-क्षण जन का नि:संशय हो।

थल-थल में फैले प्रीति-रीति,

दल-दल में निर्मल धर्म- नीति,

गल गल जाए छल-पाप-ताप

पल-पल सुन्दर-शिव-सत्प्रतीति,

तल-तल भूतल पर चिन्मय हो।

कट जाय क्लेश की कठिन रात,

पट जाय द्वेष का दीर्घ खात,

हट जाय अखिल भ्रम-तम-तमिस्र,

घट-घट में हो मंगल-प्रभात,

हिल-हिल खिल-खिल जग निर्भय हो।

1938

भोले कुसुम ! भूले कुसुम !!

जो आज भी जागे न तुम !!

नीहारिका से द्वंद्व कर रवि-कर-निकर विजयी बने,

प्रत्यूष के पीयूष- कण पहुँचा रहे तुम तक घने,

कोमल मलय के स्पर्श--सौरभ से, हिमानी से सने--

दुलरा तुम्हें जाते ; जगाते कूजते तरु के तने ;

तो और जागोगे भला किस जागरण-क्षण में, कुसुम !

यह स्वप्न टूटेगा न क्या? भोले कुसुम ! भूले कुसुम !!

लो ! तितलियाँ मचलीं, चलीं, सतरंग चीनांशुक पहन,

छवि की पुतलियों-सी मचलती, मद-भरे जिनके नयन,

हर एक कलि के कान में कहती हुई " जागो, बहन !

जागो, बहन ! दिन चढ़ गया, खोलो नयन, धो लो वदन !"

अनमोल रे यह क्षण न खोने का शयन-वन में, कुसुम !

कब और जागोगे भला? भोले कुसुम ! भूले कुसुम !!

1941

मानिनी से

बीत गयी रात, रानी, बीत गयी सब रात।

स्वप्न हुए तम के सब सपने,

जिनको समझ रहे थे अपने,

उतर गयी मदिरा नयनों से--प्राची के तट प्रात !

चीख उठे तरु-कोटर के कवि,

आग लगी, दव-से प्रगटे रवि,

फैल गयीं लपटें दिग्-दिग् में, बच न सके जलजात

हौंस रही दिल की दिल ही में,

दीप हुए जल-जल सब धीमे,

जाने के पहले, अब तो, दे बोल बिहँस दो बात !!

1939

भैरवी

तलहटी की रेत में,

बाजरे के खेत में,

भोरे- भोरे छोहरियाँ भैरवी जगा रहीं।

तुलता अनुराग-बाण

खुलता हँसता बिहान,

खिल रहे कपोल लाल-लाल आसमान के ;

और लाख-लाख बिन्‍दियों से ठौर-ठौर मौर

सज रहे जहान के ;

जिनके राग-रंग में,

भोरे-भोरे छोहरियाँ रँग रहीं, रँगा रहीं।

हँस रहीं पहाड़ियाँ,

स्वर्ग की अटारियाँ,

हँस रहे नयन छलक-छलक नदी की धार में

बज रहे सितार मंद्र-मंद्र तीर-तार में ;

जिनकी तरल तान को

भोरे-भोरे छोहरियाँ गान में लगा रहीं।

तितलियों के नेह से

भोर की हवा में खेल, खिल रही हैं पत्‍तियाँ ;

ओस के सनेह से

जग रही हैं आरती-सी दूबियों की बत्‍तियाँ ;

जिनको अपने चाव से,

गीत के प्रभाव से,

भोरे-भोरे छोहरियाँ भाव में डुबा रहीं।

पंछियों की रागिनी

चहचहा रही फुदक-फुदक नदी कछार पर ;

मछलियाँ सुहागिनी

भाँकती गगन लहर-लहर के पट उघारकर ;

जिनको अपने बोल से,

कण्ठ के किलोल से,

भोरे-भोरे छोहरियाँ प्रेम में पगा रहीं।

1943

वाणी- वन्‍दन

मा वाणी ! मा वाणी !! जय जय जय मा वाणी !!!

शरच्चन्‍द्र-पूर्णिम-विभावरी,

सुधानना, अनुपम विभा-भरी,

अंग-अंग सित-कुन्‍द, कांत-वपु,

शुभ्र शुक्लवसना सुधाधरी,

वीणा-मंडित, सुर-नर-वंदित, सित-शतदल-थिर-ज्ञानी !

कुमतिहारिणी, भक्‍त-तारिणी,

मन्‍दस्मितमुख, तमनिवारिणी,

नमस्कार हे, बार-बार हे,

जन मराल-मानस-विहारिणी,

धृत-पुस्तक-मणि-स्फटिक-मालिका, मुद-मंगल-मतिदानी !

अहो वेद-वेदांग-अखिल-मति,

अखिल-ज्योति-धारिणी, अखिल-गति,

लक्ष्मी, मेधा, धरा, पुष्‍टि हे,

गौरी, प्रभा, तुष्‍टि, ओ मा धृति !

अपनी विविध मूर्तियों से कल्याण करो, कल्याणी !!

1943

आदेश

मन को, मीत, मनाओ रे।

सपने हैं, जो घेर रहे, अपने मन को समझाओ।

पौरुष तो निर्भय बढ़ता है,

भाग्य-पाठ वह कब पढ़ता है?

अपना पंथ आप गढ़ता है ;

अपनी आप बनाओ।

राह चुनो अपनी अपने से,

क्या होगा केवल सपने से?

मुक्ति नहीं माला जपने से,

व्यर्थ न आयु गँवाओ।

एक मार्ग है, और एक ही

वीरों की है अमर टेक भी,

पग पीछे क्यों हटें नेक भी !

साहस है? तो जाओ।

1942

गुसाईं, आज तुम होते !

गुसाईं, आज तुम होते !

कला की देखकर यह दुर्दशा, तुलसी, बहुत रोते !!

मनोरंजन अरसिकों का, कुपात्रों के विरद गाना ,

पदों के तोड़ पद, यतिहीन कुछ तुक जोड़ ले आना,

यही है काम कवियों का, इसी में हैं समय खोते !

छिड़ा है प्रश्न रोटी का, पड़े हैं जान के लाले,

घरों में दण्ड चूहे पेलते हैं शत्रु रखवाले,

अभी तक पर हमारे कवि अलक में खा रहे गोते !

प्रवर्तक जो कहे जाते युगों के, बेख़बर-से हैं,

शृंगालों-से छिपे हैं वीर जो शेरे-बबर-से हैं,

जगाएँगे हमें क्या ख़ाक ! युग से जो रहे सोते?

करेंगे क्या भला लेकर विरह के गीत, कव्वाली?

हमारा सर न ऊँचा कर सकेगी रीति व्रजवाली ;

हमें तो चाहिए वे गान, जो हों शक्‍ति के सोते।

ज़माना बढ़ गया आगे, न क्यों फिर आज हम जागें?

डटें कवि-कर्म पर अपने, जमाने की धरें बागें?

हमारे कवि जलन के दाग़ नव-निर्माण से धोते !!

--गुसाईं, आज तुम होते !!

1936

जीवन- तरंग

जीवन तो जल की माया है।

दुख है, सुख भी है जीवन में, जीवन सुख-दुख की छाया है !!

जो आज बहुत इठलाते हैं,

है नाज़ जिन्हें अपने तन पर ;

जो फूले नहीं समाते हैं,

है नाज़ जिन्हें अपने धन पर ;

सपनों के महल बनाते हैं,

है नाज़ जिन्हें अपने मन पर ;

उँगली पर विश्‍व नचाते हैं,

है नाज़ जिन्हें अपने फन पर ;

भरमाये हैं वे आप, जिन्होंने दुनिया को भरमाया है !!

हैं नाच रहे वे आप, जिन्होंने जग को नाच नचाया है !!

मैंने देखे हैं फूल बहुत,

मैंने देखे हैं शूल बहुत ;

देखी है मैंने धार बहुत,

देखे हैं मैंने कूल बहुत ;

दुनिया में मतलब की बातें

थोड़ी हैं, ऊल-जुलूल बहुत ;

हर एक हवा जब बही, गंध

लाई थोड़ी, पर धूल बहुत ;

अचरज है, अपने ही खेलों ने कितना खेल खिलाया है !

दुख दर्द लिये आया, तो सुख ने सपनों से ललचाया है !!

कल फूल एक इठलाता था,

गुलशन में अपनी डाली पर ;

वह नर्गिस का था फूल, मुग्ध

अपनी सोने की प्याली पर ;

तितलियाँ ललकती रहती थीं,

जिसके जीवन की लाली पर ;

मुस्कान निछावर करता था,

जो भौरों पर औ' माली पर ;

वह भूल गया था, दो दिन की उसकी भी सुंदर काया है !

वह भूल गया था, दो दिन को मधुमास यहाँ पर आया है !!

अरमान बहुत तो उठते हैं,

पल-पल मन में लहराते हैं ;

ये बुल्ले भी तो, पानी पर,

पल-पल छाते-छहराते हैं;

उठते यौवन के ज्वार कभी

तूफान लिये जो आते हैं ;

मेरे मूर्च्छित मन में, फिर से,

व्याकुल सपने भर जाते हैं ;

इन सपनों में ही पड़कर तो मैंने सर्वस्व गँवाया है !

हीरों के हार लुटाये हैं, बालू का महल उठाया है !!

अब और कहाँ ले जाती है

चंचल मन की यह धार मुझे,

देखूँ, अब और दिखाता है

क्या-क्या, छलिया संसार मुझे ;

मैं तो बढ़ता ही जाऊँगा,

अब जीत मिले या हार मुझे ;

इस पार मुझे जो लाये हैं,

ले जाएँगे उस पार मुझे ;

बहलाता जाऊँगा दिल को, जैसे अब तक बहलाया है !

यह गाँठ वही सुलझावेगा, जिसने जीवन उलझाया है !!

1941

ओ सैनिक !

जलना ही है , तो जलता चल।

पर आह कभी न कढ़े मुख से,

हिल जाय हृदय न कभी दुख से ;

यह जान रहे, न रहे, लेकिन

ईमान रहे, अविचल सुख से ;

जग-जाल घिरें, घेरें, घेरेंगे ही, लेकिन तू चलता चल।

तूफानों से खेलना पड़ा,

चट्‍टानों को ठेलना पड़ा ;

छूटा वह सपनों का नंदन,

क्या-क्या न तुझे झेलना पड़ा?

अब आज, पार करके पहाड़, इन काँटों को भी दलता चल।

कुछ देर और, कुछ दूर और,

चल, होने दे तन चूर और ;

हिम्मत न हार ; मन को सँवार ;

वह देख-सामने-सिंहपौर

ललकार रहा है बार-बार : जीतों में हार बदलता चल।

1942

जागरण -गीत

दिन-दिन आता समीप जागरण !

पर्वत वन हैं, तो क्या?

घुमड़े घन हैं, तो क्या?

उन्मन मन है, तो क्या?

बढ़ते जाओ, पंथी, पथ पर धर धीर चरण।

तुमने झोंके झेले,

तूफानों में खेले,

पर्वत पग से ठेले ;

मर्दित देखो अपनी पद-रज में भीत मरण।

जीवन क्या, जो न चढ़ा?

यौवन क्या, जो न बढ़ा?

वह स्वर क्या, जो न कढ़ा?

निर्झर-गति-प्रखर शिखर-शिखर करो नित्य तरण।

कुछ न मिला, कुछ न खिला ,

पाई बस शैल-शिला,

तन-मन कुछ और छिला ;

पर व्रण तो, धीर, अमर वीरों के आभूषण।

चाहे थक जाए पथ,

पर न रुके पौरुष-रथ,

शोणित-श्रम से लथपथ

बढ़े चलो, बढ़े चलो, निर्भय, हे अमर-वरण !!

1941

पंछी बोले

पात-पात पर किरणें नाचीं, डाल-डाल पर पंछी बोले--

"शयन तुम्हारा सर्वनाश है, अवसर पर चुप रहना कैसा?

प्रबल देख प्रत्यक्ष पाप-अन्याय हाय ! चुप सहना कैसा?

सोते ही तुम रहे, और लुट गया तुम्हारा माल-खजाना ;

जान-बूझकर महामोह की प्रलय-धार में बहना कैसा?

तन्द्रा की इस विषकन्या का आलिंगन-सुख त्यागो, भोले !

"हिम्मतवाले दाँव लगाकर लूट रहे जीवन की बाजी,

और एक तुम हो, कि एक मत पर कोई भी जहाँ न राजी ;

जागी महाक्रांति पश्‍चिम में, आग लगी पूरब के नभ में,

मुल्ले, लेकिन, मस्त पड़े हैं, पिंगल छाँट रहे पंडाजी,

जीवन है संग्राम, मृत्यु विश्राम, मौत मत माँगो, भोले !

"वीरों की यह भूमि तुम्हारी, वीरभाव आकाश तुम्हारा !

वीरों के वंशधर वीर तुम, वीरों का इतिहास तुम्हारा !

चप्पा-चप्पा भूमि यहाँ की वीरों के शोणित से तर है ;

आदर्शों पर शीश कटाना रहा सदा उल्लास तुम्हारा ;

आज तुम्हीं, लेकिन, भय से हो भीत, भीत मत भागो, भोले !

"खाक छानते खोहों की, जंगल खँगालते चले तुम्हीं तो !

मृत्यु-अंक में खेल, पले हो तलवारों के तले तुम्हीं तो !

जीवट ही जीवन है, जीना तुमसे ही जग ने सीखा है ;

विश्‍व-व्योम के घटाटोप में तड़िद्‍दीप बन बले तुम्हीं तो !

आश आज भी तुम्ही विश्‍व की, एक बार फिर जागो, भोले !"

1942

मूर्च्छना

रचनाओं के शीर्षकों की सूची :

1

बहुत मैंने पुकारा, ओ पिया !

2

एक वस्तु है, एक बिंब है

3

मन में समुद्र समा रहा

4

तुमको भी, मेरी याद

5

मधु है मधुबन है

6

आँखें हैं हैरान

7

तुमसे मेरा गोपन क्या है

8

आज तेरी याद का दिन !

9

बीत गए जो मास मधु के

10

साधना सिद्धि है प्रेम की

11

एक क्षण भी तुम

12

वे कुछ दिन बचपन के मेरे

13

बादलों की ओट से

14

बरसे हैं मेह कहीं न कहीं

15

घर-घर आँगन-आँगन जागा

16

पकने दे तप के बोल

17

दिशि-दिशि निशि घिर आई

18

आज अमा घर आई

19

जब-जब बुखार आता है

20

पीते ही आए नैन

21

तुम्हीं मुँह मोड़ रहे

22

बीत गया मेला दिन-भर का

23

क्या न हुआ , जो अनहोना था

24

दिल को दिलगीर नहीं मिलता

25

क्या बोलूँ क्या बात है

26

अमरण लय-स्वर क्यों

27

यह भी शिल्प तुम्हारा ही है

28

खुश होऊँ क्या, नाखुश भी क्या

29

हँसता तो हूँ, रोता कब हूँ?

30

मुझको जरूरत क्या, किसी की याद की?

31

लाज की यह बात

32

मत भीख माँग, मत भीख माँग

33

तुझमें प्रतिभा भरकर विधि ने

34

मुझे प्रेरणा दे तो कौन?

35

मेरे गीत अगर सूखे हों

36

रत्न बने लोचन

37

चाँदनी ने कहा, मेदिनी ने कहा

38

घुला ही किए भूमि के तृण-तुहिन

39

अलि हे ! हरसिंगार भी फूले

40

सखि, रजनीगंधा के फूल

41

आज भी घन घिर आए हैं

42

कहाँ बरसाऊँ व्याकुल प्यार

43

वह अँधेरी रात

44

एक आकुल आस

45

मन रे ! इतना तो धीरज धर

46

आज विदा तुमको देनी है

47

मेरे सपने फिर आए हैं

48

बोलूँ और कहूँ क्या?

49

चिंतन बन, चल चपल भावने !

50

आज भी मोह लगता है

51

मैं इतना आकुल ही क्यों हूँ?

52

वह दिन तुम्हें याद है प्राण?

53

आज मेरे दृग उनींदे

54

साँझ हुई घर आए पंछी

55

आज बजती ही नहीं यह बीन

56

आज घन की रात

57

आज अपने आप से भी

58

बीती आधी से भी अधिक रात

59

आज तुम यदि पास होते

60

मेरी खाली प्याली में भी

61

मेरे सपने ही सुख हैं

62

मन इसीलिए तो डरता था

63

बोलो तो प्यार किया था क्यों?

64

आज मेरे गान भी हैं मूक

65

आज भी न पुरी, मगर यह लालसा

66

तुम चाहोगी गान

67

यह चाँद आज पीला क्यों है?

68

ऐसा दुख क्यों दिया?

69

बीती बात भुला लेने दो

70

न हँसते हैं , न रोते हैं

71

अब क्या है, जो लिये चलूँ मैं

72

नाता टूट गया जग से जब

73

आओ बैठा जाय

74

उधर चाँदनी , इधर अमा है

75

मधुकर का क्या दोष है?

76

मुँह फेरे ओ चंदा मेरे !

77

कुछ और गवा लो गीत, मीत !

78

मेरे गीतों को भी

79

जब से तुम तारों में आए

 

 

रचनाएँ

  1.  

बहुत मैंने पुकारा, ओ पिया ! अब तू पुकार --

पिया ! अब तो पुकार !!

चकोरी-सी न मेरी याद-- लोचन क्यों लसे !

न स्वर के शर, न पिक-उन्माद-- मधुबन क्यों बसे !

पपीहे की नहीं फरियाद -- स्वाती क्यों रसे !

हुआ ही क्या अभी बरबाद -- जिस पर तू हँसे !

मगर यह रात -- यम की अन्‍धकारा-- ओ पिया !

घुटा दम जा रहा ; इस अन्‍धकारा से उबार ! !

कि पत्थर तक पसीजा-- हो गए मरु भी हरे ;

धरा का गात भींजा-- छाँव के बन-बन भरे ;

खिला जो चाँद, मिलके खिल उठे नयन ;

निमोही ! तू न रीझा -- रात-भर लोचन ढरे !

प्रलय की धार-- भ्रम ही भ्रम किनारा-- ओ पिया !

किनारा दे तरी को, या, किनारे पर उतार ! !

सुबह तो रोज आती है, मगर इस कूल पर

नहीं आती किरन, हँसती भ्रमर की भूल पर !

मुझे मेरा पता देकर, निठुर ! यह क्या किया !

भरम तो था कि मैं मँडरा रहा हूँ फूल पर !

छुटा, अब तो, भरम का भी सहारा, ओ पिया !

मुझे मत देख, पर अपनी नजर को तो सुधार !!

-- पिया ! अब तो पुकार !!

पिया ! अब तू पुकार !!!

1952

2.

एक वस्तु है, एक बिम्ब है, मैं दोनों के बीच--

मेरे दृग दोनों के बीच !!

कितना भी मैं चितवन फेरूँ,

चाहे एक किसी को हेरूँ,

उभय बने रहते हैं दृग में--

सर में पंकज-कीच !

एक रूप है,एक चित्र है, मैं दोनों के बीच- -

मेरे दृग दोनों के बीच !!

मींच भले लूँ लोचन अपने,

दोनों बन आते हैं सपने,

मैं क्या खींचूँ, वे ही खिंचकर

लेते हैं मन खींच !

एक सत्य है, एक स्वप्न है, मैं दोनों के बीच--

मेरे दृग दोनों के बीच !!

प्यासा थल, जल की आशा में,

रटता है जब खग-भाषा में,

रवि-कर ही तब, घन-गागर भर,

जाते हैं बन सींच !

एक ब्रह्‍म है, एक प्रकृति है, मैं दोनों के बीच--

मेरे दृग दोनों के बीच !!

1953

3.

मन में समुद्र समा रहा, दृग से उलीचूँ किस तरह?

चन्‍दन-भरी मेरी तरी उतरी तुम्हारे कूल पर ;

अपना लिया तुमने उसे, हँसकर पते की भूल पर !

तट पर तुहिन था, और तुमको थी जरूरत आग की ;

नौका धुआँ देने लगी, जागीं शिखाएँ त्याग की !

जल में मलय जलता रहा, तापा किये तुम तीर से ;

बाड़व बुझाता मैं रहा, दो सीपियों के नीर से !

लिपटा प्रलय का दाह है, दृग में दरस की चाह है ;

मैं नैन खोलूँ किस तरह, मैं नैन मींचूँ किस तरह?

विषपीड़ितों के दाह को थी शीतकर जिनकी शरण,

तूफान को भी जो बनाते थे सदाचारी पवन ;

ऐसे सगुण अपराध से खण्डित जिन्हें होना पड़ा,

अर्चित चिता पर भी उसी अभिशाप से सोना पड़ा ;

क्यों हो मुझे तुमसे गिला? तुम तो घिरे, घन बन गए ;

अपनी रगड़ से आप ये श्रीखण्ड इन्‍धन बन गए !!

बाहर अनल की आन है, भीतर तुम्हारा ध्यान है ;

मैं साँस छोड़ूँ किस तरह, मैं साँस खींचूँ किस तरह?

1953

4.

तुमको भी, मेरी याद ! कभी आती है मेरी याद?

कभी तो आती होगी याद !!

तप के तन पर जलधर-अम्बर करता करुणा की छाँह ;

परिताप-द्रवित दिव आप नमित धरता धरती की बाँह ;

सुमनों का चाप चढ़ा, चढ़ता भव पर जब नभ-उन्माद--

तुमको भी क्या, घन से छूटी, आती है कोई याद?

दो नील नयन राकायन बन जगते बाले शशि-दीप ;

मोती चुगता आकाश, चकोरी-धरती छल के सीप ;

चाँदी के कलसे चढ़ते हैं जब ज्वारों के प्रासाद--

तुमको भी क्या, नभ से टूटी, आती है कोई याद?

धनखेतों की सोनारानी धरती कुटियों में पाँव,

ओढ़े धूमल चादर दिखते धानी घानी के गाँव ;

कुटते जब श्रम के दान, कुटिल धन का बनने को स्वाद--

तुमको भी क्या दिल में कूटी, आती है कोई याद?

भूधर भू से सटकर सोते जब ओढ़ शिशिर-नीहार,

सेमल से लाल दुलाई लतिकाएँ लेतीं साभार ;

कंटकदल जबकि दलकते हैं, बनकर छद के अपवाद- -

तुमको भी क्या, विधि से लूटी, आती है कोई याद?

छीटों की चोली-चुनरी में छुटती छिति की मुस्कान,

चोटी पर चढ़ते फूल, फूल पर फल, फल पर पिक-बान ;

कलियों के मुँह पर खिल जाते जब अलियों के अवसाद--

तुमको भी क्या, बिंधकर फूटी, आती है कोई याद?

आमों को देख तरसते हैं बिन दामों के अनुराग ;

तप के मारे, मारे चलते पीले पत्‍तों के भाग ;

प्यासी धूली से उठती है जब 'पी-पी'की फरियाद--

तुमको भी क्या, जीवनबूटी ! आती है कोई याद?

1952

5.

मधु है, मधुबन है, मधुमाते दृग भी फूले, तो अचरज क्या !!

पतझर के पात सिहाते हैं,

'क्या मौसम है!'झुँझलाते हैं ;

तरु-तरु तरुणाई झूल रही, मन भी झूले तो अचरज क्या !

बुलबुल का दिल जब छिलता है,

गुलशन में गुल तब खिलता है ;

यदि दर्द तुम्हारे गीतों का दिल को छू ले , तो अचरज क्या !

भौरों को कोई रोके तो !

पुरवा को कोई टोके तो !

तितली बन स्वप्न तुम्हारे भी भरमे- भूले, तो अचरज क्या !

1953

6.

आँखें हैं हैरान-- कि इन पर दुर्वह मन का भार है !

धारा है गम्भीर, लहर की डूबी-सी आवाज है ;

डूब गया है तीर, इसी से कलरव का यह साज है !

क्यों ललकें अरमान-- गगन पर जब घन का अधिकार है !!

कब छूटी थी नाव, कहाँ से , यह तो जाने कूल ही ;

दीखी छाँव न ठाँव, भरी थी सूनी आँखों धूल ही ;

मत पूछो, तूफान ! कहाँ जाना, लगना किस पार है !

शशि मेरे ! यह प्यार तुम्हारा मोम है कि पाषाण है?

मिलता है अंगार उसे, जो देता तुम पर जान है !

हे प्राणों के प्राण ! तुम्हारी जीत नहीं, यह हार है !

1954

7.

तुमसे मेरा गोपन क्या है !

लेकिन ऐसा भी होता है,

जब बहुत-बहुत जी होता है --

कुछ दिल की तुमसे बतियाऊँ,

बिलकुल खुलकर कुछ कह जाऊँ--

तब शब्द नहीं मिल पाते हैं,

दो दल हिलकर रह जाते हैं !

वह मूक-मुखरतम अभिलाषा,

बेचैन बिजलियों की भाषा,

काँटे-काँटे की नोक बनी,

लिख जाती है पीड़ा अपनी ;

फिर भी तुम बूझ नहीं पाते,

तब क्या बतलाऊँ, मन क्या है !!

सिल नहीं, अगर शीशा होता

तो दिल भी क्या से क्या होता !

तुम चित्र बने होते इस पर ;

हँसते इस पर, रोते इस पर ;

जगना भी तब लगता सपना

चढ़ता सिर पर जादू अपना !

मैं ही आदर्श नहीं जब हूँ,

तब दोष तुम्हें नाहक क्यों दूँ?

सीधे दृग भी न उठा पाते,

तुम क्या जानो, चितवन क्या है !!

1953

8.

आज तेरी याद का दिन !

अनगिनत निशि-याम दृग ने दिन बनाए ;

बूँद-बूँद बटोर नभ के ऋण चुकाए ;

चाँदनी के ध्यान पर अब धुंध छाता जा रहा है ,

और, खग पछता रहा है ;

दूर होता जा रहा है नीरनिधि से चाँद छिन-छिन !

कामना तो थी कि मिल जाए सुधाधर !

प्यास कुछ बढ़ ही गई कुछ ओस पाकर ;

आसमाँ गलकर धरातल को जलाता जा रहा है ;

दूब-दल कुम्हला रहा है ;

प्रात अनुदिन बीन जाता रात के उडु-फूल गिन-गिन !

भोर के पोंछे नयन-अंचल अचल के,

साँझ तक, रश्मिल हिंडोरों पर न ललके ;

दूर होता दिन धरा को ध्रुव दिखाता जा रहा है ;

क्षितिज को समझा रहा है ;

याद में तेरी जला जाते तुहिन के दीप, तृण-तृण !!

1953

9.

बीत गए जो मास मधु के, सब प्रत्यक्ष समान, मेरे--

ओ प्राणों के प्राण !

जीवन का जब भोर ही था, मानस हास-विभोर,

तुम चुपके-चुपके गगन में उग आए चितचोर ;

और, चुराकर नींद मेरी, गूँजे बनकर गान मेरे--

ओ प्राणों के प्राण !

नेह-भरा तो था दिया, पर आग बिना अँधियार ;

सो तुमने क्या लौ जगाई, गेह हुआ उजियार ;

लौ न बुझे, लौ की चिता पर फूल बने अरमान मेरे--

ओ प्राणों के प्राण !

प्रेम कठिन सौदा यहाँ , बस, घाटे का व्यापार ;

खोए लाखों-लाख मोती, मिला न मन का प्यार ;

सच न हुए लो, स्वप्न ही तो जीने के सामान मेरे --

ओ प्राणों के प्राण !

आए हो तुम इस घड़ी, जब घिर आई है रात ;

खाली हाथों जा रही मैं, लेकर खाली मात ;

क्या दूँ तुमको भेंट? ले लो, थाती हैं जो प्राण मेरे--

ओ प्राणों के प्राण?

1952

10.

साधना सिद्धि है, प्रेम की ;

सिद्धि है प्रेम की साधना !

चाँद बन तुम चढ़े आसमाँ पर,

आज देखो कि तुम हो कहाँ पर !

क्षुब्ध हैं पग तुम्हारे लहर पर ;

शान्‍त है सिन्‍धु- आराधना !

मुँह खुला, हो गए फूल कुंकुम !

क्यों रखो याद अब शूल को तुम?

गंध ही जब स्वयं कह रही है --

व्यर्थ है बाँधना ; बाँध ना !

दीप के नेह में जो पगे तुम,

लौ बने और जग में जगे तुम,

क्या हुआ, जो तले ही अँधेरा?

तुम बनो साधना, साध ना !

1948

11.

एक क्षण भी तुम हिमाचल-शीश पर चढ़ाकर अगर गिर ही पड़े तो क्या?

रश्मि से छूकर तुम्हारे स्वप्न ने जग को जगाया-- जाग मेरे होश !

भोर का सपना तुम्हारे सामने कुम्हला रहा था-- जग रहा बेहोश !

और, जब उस दिन बिहँस रस का हलाहल पी गए थे, कम न था संतोष !

आज तब क्या है कि सूने में गड़ाए आँख तुम हो एकदम खामोश?

क्या नई-सी बात, 'पी'की टेर पर घन से अगर शोले झड़े तो क्या?

दाह-घर से आह की उठती घटाओं ने पुकारा-- ओ अमर आलोक !

तुम रहे बुनते सुनहले स्वप्न शोभा के जहाँ पर, वह नहीं यह लोक !

इस चमन में तो पनपते ही सुमन-दल को सुखा देता गगन का शोक !

और, प्रतिभा का अरुणपथ भी अँधेरा है, कलपते हैं कला के कोक !

पर, किरणमाली ! चले जब फूल ही चुनने, कहीं काँटे गड़े तो क्या?

1951

12.

वे कुछ दिन बचपन के मेरे !

वे कुछ दिन !!

धरती की गोदी में भूला,

भोलापन फिरता था फूला,

आँखों में सपनों का झूला--

प्राण तुहिन !

नील गगन आँखों की छाया,

भूतल पर जादू की माया,

बौरों के मधु से बौराया --

विपिन-विपिन !

मिट्‍टी की सोंधी साँसों से

भर-भर उभर-उभर बासों से

उड़े रूप-रस के प्यासों-से

स्वर अमिलन !

1949

13.

बादलों की ओट से चाँद मुस्कुरा रहा !

चाँद मुस्कुरा रहा !!

आसमाँ समुद्र है , चाँद युद्ध-पोत है ;

चाँदनी जहाज के दीप का उदोत है ;

पंकजों की आँख में धूल झोंकता हुआ,

मेह के अंबार-सा फेंकता हुआ धुआँ,

रश्मियों की गोलियाँ ओट से चला रहा !

पंछियों की लोक में चीख है, पुकार है--

चाँदनी चकोर को दे रही अँगार है !

तारकों की मंडली पस्त, बेकरार है ;

लूटने के जुर्म में चाँदनी फरार है !

चाँदनी की लाज से चाँद मुँह चुरा रहा !

व्योम है कलिन्‍दजा, नाग है काली घटा ;

नीलिमा फुंकार है, फेन है उडुच्छटा ;

रश्मियों की रास है, चाँदनी विलास है,

कालिमा के छत्र पर चाँद ब्रज-हास है !

नाग को नाथे हुए बाँसुरी बजा रहा !

चाँद मुस्कुरा रहा !!

चाँद मुस्कुरा रहा !!! 1951

14.

बरसे हैं मेह, कहीं न कहीं !!

ईर्ष्यातप के हुत श्‍वास पवन,

दहते चलते थे जो बन-बन,

लगते हैं अब तन में चन्‍दन ;

लगता है, आज पुकारों ने परसे हैं मेह, कहीं न कहीं !

बिजली तो है, पर मेह नहीं ;

जलती है लौ, पर नेह नहीं ;

हैं प्राण कहीं, औ'देह कहीं ;

फिर आज, पपीहे के स्वर को तरसे हैं मेह, कहीं न कहीं !

मेरे दृग में जो भर आया,

बनकर मरु-जीवन लहराया,

सचमुच, वह है ! या, मृग-माया?

फिर आज, सफल छल पर अपने, हरसे हैं मेह, कहीं न कहीं !

1952

15.

घर-घर आँगन-आँगन जागा, तेरा घर अँधियार,

आली ! तू भी संझा बार।

शशि शरमाए कुमुद-नयन में ;

निशि शत-शत- दृग विस्मित मन में --

यह कैसी लौ मृन्‍मय तन में !

इन दीपों के आगे जागे क्या नभ का शृंगार !

पर्व नहीं, यह गर्व धरा का ;

तिमिर-शिखर पर ज्योति-पताका ;

अति पर नति की जय का साका ;

इन नेही नयनों के जोड़े क्यों न जुड़े संसार !

एक दिया तेरे भी कर में,

साँझ दिखा दे, सखि, घर-घर में ;

निज लघुतमता में मत भरमे ;

यह तेरा लघु नीराजन ही होगा रवि साकार !

1952

16.

पकने दे तप के बोल, बनें नभ के रस-घट अनमोल !

कू-कू कुहुकिनियों की रट से रीझा आता ऋतुराज ;

पी-पी-पी पिहक पपीहों की लाती सावन के साज ;

बजने दे अन्‍तर खोल, सजे फिर यमुना-तट अनमोल !

बन-बन पर पियरि चढ़ती है तब आता है मधुमास ;

घन-अंजन-दृग होकर ही नभ पाता है शारद हास ;

चढ़ने दे चितवन-चोल, बने हिय पिय का पट अनमोल !

पचकर जीवन में पंक कला का बनता पंकज-देश ;

तम पीकर अंक-कलंक कलंकी ही बनता राकेश ;

पचने दे विष का घोल, मिलें तेरे भी नट अनमोल !

तारों के नग लगते ही नभ बन जाता है निशि-हार ;

उर में लौ लगते ही माटी पाती है मणि-शृंगार ;

लगने दे लोने दोल, नयन हों बंसीबट अनमोल !

1952

17.

दिशि-दिशि निशि घिर आई ; जग के दीप, जलो।

जिस रजनीमुख से छुट जूठी

ज्योति हुई लुट-लुटकर झूठी,

वह, महि की अहिता से रूठी,

विधु-विधुरा फिर आई ; मग के दीप, जलो।

घन-रण-फण का जो भय-पावस

छाया है बन प्रेत-अमावस,

अभय शरद्‍ हो, भरित सुधारस--

नेहदृगी झिर आई ; पग के दीप, जलो।

तम के बल से हारा-हारा

माँग रहा नभ ज्योति-सहारा ;

ताक रहा है तारा-तारा ;

लौ रज के सिर आई ; लगके दीप, जलो।

1952

18.

आज अमा घर आई ; मेरे दीप, जलो !!

प्रीति निभाकर नीलविभा की

मरघट-मरघट जो भटका की,

वह सिन्‍धुज श्री, मूर्ति व्यथा की,

भस्म रमा कर आई ; मेरे दीप, जलो।

अभ्युदयी, तम के रज-ध्वज धर

सत्पथभ्रष्‍ट हुए, भृगु-पद भर ;

प्रायश्‍चित्‍त बनी, अवनी पर

विष्णु-क्षमा ढर आई ; मेरे दीप, जलो।

दीर्घ तिमिर, महि पर अहि-कुन्‍तल;

उडुगण, गुम्फित मणि-मुक्‍ताहल ;

दीपक-माल दिये भव के गल

स्वयं प्रभा वर आई ; मेरे दीप, जलो।

1952

19.

जब-जब बुखार आता है !

जी में होता है, तुम सिरहाने होते ;

सिरहाने मेरे, दो-दो आँसू रोते ;

मेरे ललाट पर छन-छन सुधा छहरती ;

सिर पर, चन्‍दन की छाँह बने, घन सोते ;

तुम नहीं, मगर, तुम से भी सरल तुम्हारा,

तब-तब अधीर, उमड़ा दुलार आता है !

ज्वर की लहरों का ज्वार उधर चढ़ता है,

लहरों पर मेरा चाँद इधर बढ़ता है;

तब निबिड़ निशा ही बन जाती है पूनम ;

सिरहाने, मन का चाँद मन्‍त्र पढ़ता है !

अफसोस ! काश ! यह ज्वार चढ़ा ही रहता !

जिसकी डोरी धर, गया प्यार आता है !

ज्वर जाकर जब भाटा बनकर आता है,

क्या कहूँ कि मन तब कैसा हो जाता है !

दुपहर का सूरज भी चन्‍दा-सा लगता--

उतरा खुमार ऐसा तुषार लाता है !

बज उठती अपनी साँस, भरम हो आता ;

आता है काल, मुझे पुकार जाता है ! !

1952

20.

पीते ही आए नैन, न हिम की प्यास गई !!

रस परसे जो गल जाय, गले को क्या कहिए !

चन्‍दन देखे जल जाय, जले को क्या कहिए !

क्या कहिए उसको, आप छला जो अपने से !

अपनी आँखों ढल जाय, ढले को क्या कहिए !

कि गया अँग-अँग से चैन, गई न उसाँस गई !!

उतरा था जो दृग-बंक, गगन-मन में तिरके,

लगके पूनम के अंक, लुटा नभ से गिरके !

उडु-दीप न ये, आँसू बनके फूटीं आँखें--

पर वह मन का अकलंक न फिर आया फिरके !

नित नैन बिछाती रैन, लगाके आस नई !!

सुमनों को दे हिम-हार, शिशिर ने सिर नापे !

आगे की सोच बहार, लुटे काँटे काँपे !

कि अतन बन, बन की हूककहीं से कूक उठी--

रस के बस के अभिसार, करीरों ने भाँपे !

श्रुति नैन बनी, सुन बैन; न पिक के पास गई !!

1952

21.

तुम्हीं मुँह मोड़ रहे , सजाकर लोचन-दर्पण-द्वार !!

प्रलय में पोत किधर, कहाँ आया, मैं क्या जानूँ !

भँवर में था लंगर, हुआ फिर क्या, मैं क्या जानूँ !

पुकारा था शायद, तुम्हीं को तब रोकर मैंने !

तुम्हारा क्या होकर तुम्हें पाया, मैं क्या जानूँ !

तुम्हीं अब छोड़ रहे, किनारा ही करके मँझधार !!

हरे अरमानों से, जिसे तुमने हँसकर हेरा ;

सुरीली तानों से, जिसे तुमने डँसकर टेरा ;

लता वह लजवन्‍ती, बनी तुमसे जो रसवन्‍ती--

गुणी संधानों से, जिसे तुमने कसकर घेरा ;

तुम्हीं अब तोड़ रहे , उसे असमय देकर पतझार !!

मिला जो नेह-सलिल, खिला जड़ता में भी जीवन--

कि जैसे शापित सिल हुई थी पद परसे श्री-तन ;

तुम्हारी चितवन ने बना डाला तम को चन्‍दा --

कलूटे काँच-कुटिल, बने कांचन-दीपक-दरपन !

मुकुर वह फोड़ रहे, तुम्हीं अब छल के छींटे मार !!

1953

22.

बीत गया मेला दिन-भर का , दिन-भर का यह मेला बीता !!

सपना था जो, सच हो आया !

तम पर छाई ज्योतिर्माया !

किन्‍तु, यहाँ क्या थिर रह पाया?

भर-भर घट सब छोड़ चले तट, पनघट फिर रीता का रीता !!

उमड़े धुन सुन औढर जलधर ,

गिरि से उतरे स्वर के निर्झर ;

जगत जुड़ाया जीवन पाकर !

एक सँजीवन- टेक न टूटी, प्यासा घन का ही मनचीता !!

शिशिर-चरण की रौंदी क्यारी

मृदु मुसकाई, बन फुलवारी ;

सुख पर आई दुख की बारी--

ऋतुपति-मिलन बिहँसकर हारा, अंत, निदाघ- बिरह ही जीता !!

1953

23.

क्या न हुआ जो, जो अनहोना था,

केवल तुम न हुए, तो क्या !!

सपने तो अपने हैं वे ही

दीवाने लौलीन सनेही ;

स्वर के पर छूकर भी तुमने

पर के स्वर न छुए , तो क्या !

रोए राग हँसे सीपों में,

सोए त्याग जगे दीपों में ;

मधु के फूल चुए माटी पर,

जीवन में न चुए, तो क्या !

नभचुम्बी स्मृतियों के हिम-पथ

ढर आए बनकर निर्झर-रथ ;

अमिट हुए मिटकर जो लय में,

प्रलय हुए न मुए, तो क्या !

1953

24.

दिल को दिलगीर नहीं मिलता !

रत्‍नाकर के घर में आकर

तुम भूल गए-- मोती पाकर--

पत्थर जितने मिल जायँ यहाँ,

प्यासे को नीर नहीं मिलता !

बिन माँगे मोती धर जाते,

बाँसों में भी रस भर जाते,

वे ही पपिहे को कहते हैं--

सबको यह क्षीर नहीं मिलता !

किस ओर नहीं घनघोर भँवर?

सब ओर यही उठता है स्वर--

इस लोन-लहर में जो आया ,

फिर उसको तीर नहीं मिलता !

1953

25.

क्या बोलूँ, क्या बात है !

नीलकमल बन छाईं आँखें,

राग-रंग ने पाईं पाँखें ;

बाण बने तुम इन्‍द्रधनुष पर--

जग पीपल का पात है !

अनयन दिन के बीते पल-छिन ;

माँग भरे क्यों संध्या तुम बिन !

लुक-छिपकर क्या झाँक रहे हो?

देखो, कैसी रात है !

घर सूना, बाहर भी सूना,

झंझावात, अँधेरा दूना ;

कंपित दीप, झरोखे पर तुम--

आँगन में बरसात है !

1953

26.

अमरण लय-स्वर क्यों मरण-रंध्र में फूका?

पथ की अथ-इति भी नहीं बताई तुमने,

न अथक गति ही दी मुझको बिदाई तुमने ;

तारे हारे, उस पथ पर मुझे चलाते !

ग्रहपति मेरे, मैं तो जुगनू हूँ भू का !!

आते-आते, बंदन-बेला टल जाती,

मंजिल-मंजिल मेरी गति पर पछताती ;

मुझको विलोक नभ-कोक कलपने लगता !

लहता सुहाग लुट जाता साँझ-बधू का !!

तुमको पाने मैं प्यासा दौड़ा जाता,

भ्रम के श्रम में संचित भी अमृत गँवाता ;

करुणा अपनी देखो, मृगतृष्णा मेरी !

तुम चिर-निदाघ, मैं थिर पावस आँसू का !!

1953

27.

यह शिल्प भी तुम्हारा ही है, आँखों में झाँको भी तो !

अचरज की क्या बात? तुम्हारे

दीप्‍त नहीं किस नभ में तारे !

अपनी आँखों इन आँखों का तारक-धन आँको भी तो !

देखो, क्या कविता बनती है !

क्या-क्या भाव-सुधा छनती है !

इनका दिल इनके ही दिल पर एक कलम टाँको भी तो !

बिन डूबे मोती पाते हैं,

जो इन पर ढर उतराते हैं !

एक बार इनके जल-पथ से जीवन-रथ हाँको भी तो !

1953

28.

खुश होऊँ क्या !नाखुश भी क्या !!

फिर आज गगन भर आया है,

स्वाती का मन ढर आया है ;

पर कौन करे स्वागत इनका?

पिंजड़े का बोल पराया है !

पराई आँखों को घन क्या,

बिजली क्या, इन्‍द्रधनुष भी क्या !!

जिनकी सुध ही से मोर मगन

चलते थे नाच किए बन-बन,

जब टूट गए नुपुर के सुर,

तब आए तो क्या आए घन !

पंखिल चाँदों की पतझड़ को

दल क्या, दूर्वा क्या, कुश भी क्या !!

1953

29.

हँसता तो हूँ ! रोता कब हूँ?

हँसता ही हूँ ! रोता कब हूँ?

पीड़ा जो शूल चुभाती है,

मुझसे कुछ रस ही पाती है ;

मेरे जादू से जड़ में भी

जीवन की लाली आती है ;

खुद से जो भी हो रंज मुझे,

जग से नाखुश होता कब हूँ?

तुम जो पूनों बन आती हो,

क्यों मेरी लाज लुटाती हो !

इन कोरे काँच-कटोरों में

क्या-क्या तूफान उठाती हो !

यों मैं, अपने भरसक, अपना

खारा धन भी खोता कब हूँ?

आँखों में लाल जँभाई है,

पीते ही रत बिताई है !

तलछट वाले प्याले धोने

ऊषा पनघट पर आई है !

तारों के सँग मैं भी निशि-भर

जगता ही हूँ ! सोता कब हूँ?

1953

30.

मुझको जरूरत क्या, किसी की याद की?

मुझको जरूरत क्या, किसी भी याद की?

लेकिन, भला यह तो कहो, हो कौन तुम ;

सूरत तुम्हारी लग रही जानी हुई !

सहसा सहमकर हो गए क्यों मौन तुम?

पलकें तुम्हारी जा रहीं पानी हुई !

क्यों बेधकर मेरी पुतलियों की सतह

तुम पैठ जाना चाहते हो प्राण तक?

क्या फायदा, तल तोड़ने से इस तरह?

हैं भाप बनकर उड़ चुके पाषाण तक !

दिल से उठी, आँखों बुझी यह आग है !

जग से शिकायत हो मुझे क्यों दाद की?

दर्दी अगर हो, तो बनो हमदर्द मत ;

हमदर्दियाँ होती बड़ी मक्कार हैं !

बरसात का घर है, करो बेपर्द मत ;

बाजार हँसने के लिए तैयार हैं !

जो भेद पाने के लिए हो बेकरार,

वह खोलने से मैं स्वयं लाचार हूँ ;

है खुद मुझे उस बेखुदी का इन्‍तजार,

जिसके बिना मैं नींद में बेदार हूँ !

खुद बुत बना हूँ, और खुद ही बुतपरस्त ;

बलि हो गई है जीभ ही फरियाद की !!

1953

31.

लाज की यह बात मैं कैसे छिपाऊँ?- -

जानता संसार-- मैं क्या हूँ, कहाँ हूँ !

हो रहे तुम आज घर- बाहर उजागर,

दिप रहे कलधौत आभा से, धरा पर ;

मैं तुम्हारी लाज-- दीप-तले अँधेरा--

पास भी हूँ दूर, खुद आँखें चुराकर ;

दो मुझे आलोक, या, ऐसे छिपा लो--

दृष्टि दुनिया की न जाय , मैं जहाँ हूँ !!

मौन हैं मधु-कुंज-- ये हिम-हार कैसे !

स्तब्ध तारक-पुंज-- ये अंगार कैसे !

छेड़ निशि का राग, धुन पर 'पी कहाँ'की

साधते तुम सिंधु पर स्वर-तार कैसे !

रास-राजित श्री-शिखर पर, शशि ! न भूलो,

छाँह में छविहीन छाया मैं यहाँ हूँ !! 1954

32.

मत भीख माँग, मत भीख माँग, मत माँग भीख

तू ब्रह्मतेज, वाणी का सुत ;

तुझमें तेरी प्रतिभा अद्‍भुत ;

तू भाव-कला-निधि से संयुत ;

मत भूल कि तू भू पर क्या है, ऊपर दिव को क्या रहा दीख।

तू राग-कल्पना से समृद्ध

तू त्याग-भावना-युक्‍त सिद्ध,

सारल्य-बाल, अनुभूति-वृद्ध,

ओ रे वसंत के अग्रदूत ! पिक होके क्यों यों रहा चीख?

कहता उलटी लिपि का विधान,

कीचड़ में गड़कर रत्‍न छान !

तो यह भी तू कर दे प्रमाण ;

उलटी गंगा बह जाय यहाँ, बह जायँ कूल, वह योग सीख।

1954

33.

तुझमें प्रतिभा भरकर विधि ने वरदान दिया, या शाप?

नाहक इसकी चिन्‍ता मत कर--

यह खेती है किस पर्वत पर !

उपजेगा तृण, अथवा, केसर !

तू तो मजूर, अपने भरसक, बस, खटता चल चुपचाप !

हँसकर हालाहल पीता चल,

कमखाबी कथरी सीता चल ;

संघर्षों में ही जीता चल ;

धो स्वेद-सलिल से ही अपने कोरे चोले की छाप !

तेरे तन की है लाज, उसे ;

लेना है तुझसे काज, उसे ;

सब कुछ का है अन्‍दाज उसे ;

तेरे लायक जो कुछ होगा, देगा वह अपने आप।

1954

34.

मुझे प्रेरणा दे तो कौन?

भरा नहीं जिसका अन्‍तर-सर,

उभरा फूल नहीं जीवन पर,

मधुवन के उस मूर्त मोह को

दिव्य चेतना दे तो कौन?

ऐसा ही अपना जीवन है,

जड़ समाधि में लीन मरण है ;

प्राण कण्ठ तक आएँ, तब तो

गान बने अन्‍तर का मौन !

पाँखों को आँधी ने तोड़ा,

आँखों को पावस ने फोड़ा ;

बिन्‍दुशेष उस शिशिर-नीड़ को

गंध-वेदना दे तो कौन?

1954

35.

मेरे गीत अगर सूखें हों, तो इनको तर कर दो ना !

मैंने तो जो आँखों झाँका

अपने मन के पाँखों आँका ;

आँसू के इन क्षर चित्रों को छूकर अक्षर कर दो ना !

हार किये आई भू जिनको,

यदि लू ही होना है इनको,

तो, हे चाँद ! जरा इन हिम के फूलों पर रज धर दो ना !

निशि के फूल, बिंधे किरणों से,

बाँधे नयन रहे हिरनों-से ;

गिरते-गिरते भी, इनमें टुक श्रुतियों का सुख भर दो ना !

1954

36.

रत्‍न बने लोचन-- इनमें से मन का मोती चुन लो तुम !

फूल चुने, आए डाली बन,

टपके हैं दृग से लाली बन ;

मणि-माणिक हो जायँ, अगर प्रिय ! करतल-राग अरुण दो तुम !

आँखों के धोए धागे हैं,

प्राणों के रस में रागे हैं,

पीतम्बर हो जायँ, अगर टुक अपने हाथों बुन दो तुम !

पतझर के दल हैं, सूखे हैं ,

फिर भी, ये मधु के भूखे हैं ;

तर हो जायँ, अगर इन पर झुक अपने नयन करुण दो तुम !

रत्‍न बने लोचन-- इनमें से मन का धन तो चुन लो तुम !!

1954

37.

चाँदनी ने कहा चाँद से-- ऐ पिया !

तू मुझे तो उजागर किये चल रहा ;

पर, कभी देखता आप अपना हिया--

दाग-सा क्या लिये, किसलिए जल रहा !

चन्‍द्रमा ने कहा-- दाग मेरा, प्रिये,

दाह है भूमि का, अंक में पल रहा !

विश्‍व-विष का हरण, प्राण का आभरण,

मैं धरा के लिए बन सुधा ढल रहा !!

मेदिनी ने कहा मेघ से, -- ऐ सुजन !

तू मुझे तो जिलाता सुधादान से ;

मन जुड़ाता, बदन लहलहाता मेरा,

मोर के पैंजनी बाँधता, गान से।

पर, जला तू भला किस तरह रस-धनी?

मेह बोला,-- बँधी वेदना प्राण से ;

सिन्‍धु से विष-कुलिश भेंट में जो मिला

दे रहा मैं उसे बिन्‍दु-प्रतिदान से !!

1951

38.

घुला ही किए भूमि के तृण-तुहिन, पर हिमाचल कहाँ घुल सका आज तक?

धुला ही किया नील अम्बर, मगर दाग दिल का कहाँ धुल सका आज तक?

ढुला ही किये आँसुओं के नखत, पर निशाकर कहाँ ढुल सका आज तक?

भरम ही भरम है सभी कुछ, मगर यह भरम भी कहाँ खुल सका आज तक?

कसाई बने आप अपने लिए, आँसुओं की कमाई कमाते रहे !

हहाती रहीं लालसाएँ बँधी, हम तड़पकर छुरी आजमाते रहे !

उजड़ते रहे पात के घोंसले, बाँधकर पर उन्हें हम बसाते रहे !

गलाती रही जो शिखा मोम का मन, उसी को हिये से लगाते रहे !!

कुमुद इंदुवंचित न सूखें, ललक के चकोरे अँगारे चबाते रहे !

लहकती चिता नेह की न हो मद्धिम, शलभ प्राण से लौ जगाते रहे !

कहीं प्यास की प्रेरणा ही न रुक जाय, चातक अथक रट लगाते रहे !

गुलों का न फीका पड़े रंग, बुलबुल गुँथे शूल पर मुस्कुराते रहे !!

1952

39.

अलि हे ! हरसिंगार भी फूले !!

झूल रहे अब तक आशा से

मेरे मन के झूले !

ललित मयंक कुमुद-अम्बर में,

कलित कुमुदिनी शशि के सर में ;

आज मुदित मन-मन घर-घर में ;

मेरे ही... घर भूले !

विकल विफल वंचित मृग-दृग-दल ;

कम्पित उर ममताकुल, प्रतिपल ;

यह वामन मन मेरा चंचल--

शशि को कैसे छू ले !

1937

40.

सखि ! रजनीगंधा के फूल -

गुंजन की गीली साँसों से भर जाते दृग-कूल।

बरबस हिय में हूक उठाकर,

सोए मेरे स्वप्न जगाकर ,

टीस रहे प्राणों के व्रण में, जैसे टूटे शूल !

धूल हुए सब फूल हमारे ;

फूल चुए, आँखों के तारे ;

फूटी इन आँखों में अब ये भरते क्योंकर धूल !

माना, वे सोने के सपने

होते-होते हुए न अपने,

अनहोनी हो गई; हो गया ; फिर क्यों इतना तूल !

1937

41.

आज भी घन घिर आए हैं !

डोल रही मारुत द्रुत-उन्मन,

मत्त शिखी नर्तन-रत बन-बन,

सिहर-सिहर उठता सुख-कातर

द्रुम-दल-सा मेरा आतुर मन !

विफल उसाँसों की आँधी के बादल छाए हैं !

खोया-सा नभ अब घन-तम में,

जाने बरस पड़े किस दम में !

जाने कब ढुल-ढुल जाऊँ, घुल

मिल जाऊँ मैं भी प्रियतम में !

मोम-नयन में प्राण-वियोगी जोत जगाए हैं !

1938

42.

कहाँ बरसाऊँ व्याकुल प्यार?

कौन जग में अपना आधार?

पतझर में मधुकर के मन-सा,

सूनेपन में सावन-घन-सा

डोल रहा, बाँधे प्राणों में

रस के ज्वर का ज्वार

अपने ही मद से विह्वल-सा,

मृग-सा, पाटल के परिमल-सा,

ढूँढ़ रहा मैंनिष्फल, बन-बन,

सौरभ का संसार !

किस-किसकी मैं प्यास बुझाऊँ?

कहाँ बिखर जाऊँ, लुट जाऊँ?

कौन सँभाल सकेगा, मेरी

गंगा का अवतार !

1938

43.

यह अँधेरी रात -

आली ! वह अँधेरी रात !!

कामना-सी तारिकाएँ--

भग्न किस उर की कथाएँ--

मौन इंगित से बताना

चाहतीं क्या बात?

याद-से कुछ मेह छाए,

दाग-सा दिल में छिपाए,

पूछता किसका पता, यह

बावला-सा वात?

मुग्ध सुख की कल्पना से ,

स्वप्न से, छाएकुहासे ;

किस निठुर का नाम रटते

तोड़ते दम, पात?

1938

44.

एक आकुल आस--

प्राणों से लगी, न निकल रही,

गतस्नेह भी नित जल रही,

बनकर अमर विश्‍वास-

लौ-सी एक आकुल आस !!

याद बनकर साँस -

मर-मर के भला क्यों जी रही?

क्यों घाव दिल के सी रही?

अब क्या धरा है पास? -

कोई याद, बनकर साँस !! 1938

45.

मन रे ! इतना तो धीरज धर

इतना तो उदार हो जाए,

प्रियत की गति पर ध्यान न लाए ;

लोक-लोक के वे जीवन हों

तू निर्भर बस उन पर।

दुनिया हँसती है, हँसने दे,

चाहे जो ताने कसने दे ;

तू उनकी सुध के मन्दिर में

जल उज्ज्‍वल, उज्ज्‍वलतर !

घर-घर को दे मधुर उजाला,

जले मौन तेरी यह ज्वाला,

इतना भी क्या रख न सकेगा

हालाहल, गल में भर?

1938

46.

आज विदा तुमको देनी है !

हास तुम्हारा व्याज-सहित भर, फिर अपनी पीड़ा लेनी है !!

दो दिन साथ चले हम बहते,

अपनी रामकहानी कहते ;

आज अकेले ही मुझको अपनी झँझरी नैया खेनी है !

साथ तुम्हारा जीवन-फल था,

हाथ तुम्हारा जीवन-बल था ;

आज यहाँ बस मैं हूँ , मेरी किस्मत और लहर-श्रेणी है !

प्रिय हे ! आज नयन से वंचित

रत्‍न तुम्हें देते हैं संचित ;

ले लो अपना हास , इन्हें तो फिर अपनी पीड़ा सेनी है !

1938

47.

मेरे सपने फिर आए हैं !

आज गगन में फिर भी श्यामल बादल घिर आए हैं !!

तम दिग्-दिग् में घिरता आता,

भीत विहग-दल तिरता आता,

मेरा भी कलहंस नीड़ में

उड़ता पड़ता गिरता आता ;

जाने कौन सँदेशा फिर से मेघदूत लाए हैं !

मोर चकित है, शोर न करता ;

'पी-पी'रटते चातक डरता ;

टूटे दिल-सा टूट कभी, दल

कोई मर-मर करते झरता ;

रात समझ चकई के लोचन भय से भरमाए हैं !

आज किसी की याद विकल-सी

हिलती है दिल में चलदल-सी,

कुहुक- कुहुक उठती, यह क्या है?

रह-रहकर भीतर कोयल-सी !

जाने क्या संकेत, कहाँ से, प्राणों ने पाए हैं !!

1938

48.

बोलूँ और कहूँ क्या?

वाणी की इस नीरवता में सचमुच मैं चुप हूँ क्या?

यह कवि की भाषा है अश्रुत, कविता की परिभाषा !

यह अन्तरतम का प्रकाश है, यह निराश की आशा !

कौन जानता, इस परदे में होता कौन तमाशा?

ढोल पीटकर इस दुनिया को मैं निज परिचय दूँ क्या? 1938

49.

चिन्‍तन बन, चल-चपल भावने !चिन्‍तन बन !

अभव-अवधि में विविध भवयिता

--प्रकृति जनी कब?-- महत्- जनयिता ;

दिखा सत्य जब बना कवियता ;

तू भी बन-- दर्शन बन।

दिये दृष्‍टि के लिये विवर्तन ;

किये भवन के पट-परिवर्तन ;

जिये सृष्‍टि-अंकुर बहुविध बन ;

तू भी बन-- सर्जन बन।

प्रलय-चरण में बँध जिसका मन

गति का बंधन बना-- अबंधन-- ;

वही सृजन में भी गुंजन-छन ;

तू भी बन-- शिंजन बन।

1950

50.

आज मोह लगता है !

कितना आज मोह लगता है !

आज न जाने कैसा तो यह

कसक रहा मन में कुछ रह-रह ;

अँगड़ाई लेता ज्यों सोया

ज्वालामुख जगता है !!

इधर एक आग्रह रुकने का,

और, उधर न तनिक झुकने का ;

आवाहन करता दूरी पर

वह शतघ्न दगता है !

किसकी मानूँ? किसकी टालूँ?

क्या ठुकरा दूँ? क्या अपना लूँ?

प्रेम और कर्तव्य बीच यह

कौन मुझे ठगता है??

1938

51.

मैं इतना आकुल ही क्यों हूँ?

तन जलता है, मन जलता है, जलता है नयनों में पानी,

रोम-रोम में चिनगारी है, चिता बनी जलती है बानी ;

लिपट गई लपटें अधरों से, साँसों में है जलन-कहानी,

जीवन-वन में आग लगी है, निठुर नियति की यह मनमानी !

तिनके ही अंगारे जिसको, वह बन्दी बुलबुल ही क्यों हूँ?

प्यार यही तो किया कि जग ने पीड़ा के सामान दिये हैं !

मैंने फूल चढ़ाए, जग ने शूलों के वरदान दिये हैं !

देकर नभ को चाँद, स्वयं मैंने तारों के बाण लिये हैं ;

भाव बहा बेभाव, अभावों के उर पर पाषाण लिये हैं ;

अब घुलता रहता दृग-जल में, मैं ऐसा ढुलमुल ही क्यों हूँ?

1938

52.

वह दिन तुम्हें याद है प्राण?

सजल श्याम बदली छाई थी,

एक नई आशा लाई थी,

हम दोनों ने पास-पास से

दोनों की झाँकी पाई थी ;

सहम-सहम सिहरी-सी मारुत,

दूती-सी चलती धीमे-द्रुत,

हमें मिलाने को आई थी ;

चातक ने खुलकर गाए थे, उस दिन अपने गान !!

क्षुब्ध न हो धरणी, इस डर से,

भानु नहीं निकले थे घर से ;

स्वाती चाह रही थी, उसका

व्रती और अब अधिक न तरसे ;

रिमझिम-रिमझिम जल के सीकर

बरस रहे थे, घर भू का भर ;

नीरस ताल-सरोवर सरसे ;

पावस की रानी आई थी, धर धानी परिधान !

1939

53.

आज मेरे दृग उनींदे !

आज फिर कोई लगा ठोकर जगा वह बेकली दे !!

पँखरियाँ बिखरें हृदय की, नाचकर क्षण-भर गगन में ;

अधिखिले अनुराग, भीत पराग लुट जाएँ विजन में ;

ओस बन ढुल जाय जो, वह स्वप्न फिर कोई छली दे !

साधना की आँख में अपलक बसा हो बिन्दु जैसे,

नीरनिधि के नयन-मन में पूर्णिमा का इन्दु जैसे,

दर्द की तस्वीर--वह मकरन्द--फिर कोई अली दे !!

हृदय हो जिसका हिमोपल, स्मरण हो जिसका अनल-सा,

मिलन हो शीतल सुधामय, विरह हो जलते गरल-सा,

निठुर वह कोई, जरा फिर, पीर की भर अंजली दे !!

कब खिली, कैसे खिली, किस थल खिली, जाने न कोई ;

लेश भी रह जाय शेष न चिह्न, कब अनिमेष सोई ;

मृत्यु पर मेरी, नहीं दो बूँद भी कहीं दे !!

1941

54.

साँझ हुई, घर आए पंछी, साँझ हुई, घर आए।

थका हुआ, हारा दिन-भर का,

राजहंस अम्बर-सरवर का,

अरुणचरण, श्रम-श्‍लथ, मंथरपद,

नत पतंग नीचे को सरका--

अशरण दीन पथी परदेसी जाए ज्यों सिर नाए।

तार-तार तृण का, तरुवर का,

सर का, सरिता का,निर्झर का,

गूँज उठा ; गूँजा दिङ्‍ मण्डल ;

रन्ध्र-रन्ध्र सस्वर भू-स्वर का ;

विविध-वाद्य-संयुत जड़ जग ने राग सरस दुहराए।

1941

55.

आज बजती ही नहीं यह बीन !

आज ऐसा लग रहा है,

दर्द-सा कुछ जग रहा है,

बिसुधि में सब पग रहा है,

प्राण कातर दीन !

तार ढीले हो रहे हैं,

दृग पनीले हो रहे हैं,

गीत गीले हो रहे हैं,

ताल-लय-स्वर-हीन !

मोह घिरता आ रहा है,

तम हृदय पर छा रहा है,

चित्र होता जा रहा है--

दूर, क्षीण, मलीन !

आज कोई, काश ! होता,

छाँह बनके पास होता ;

आप जीवन-धन न खोता--

मूढ़ मानस-मीन !

क्या करूँ? कैसे बजाऊँ?

तार-सुर बिखरे सजाऊँ?

रागिनी कैसे जगाऊँ,

पास जबकि तुम्हीं न !

1941

56.

आज घन की रात-

भादों की अँधेरी रात !!

दिल दबा-सा जा रहा है,

कण्ठ भरता आ रहा है,

और, तिरती आ रही है आँख में बरसात !

चकित चितवन, चित्र-सा मन,

लीन प्राण, विलीन कम्पन,

एक भी साथीन संगी, और झंझावात !

एक जो भी था सितारा,

नयन का, मन का सहारा,

घिर गया वह भी, घिरे जो घोर घन-संघात !

लो, लगी पड़ने झमाझम,

छा गया भव पर विभव-तम,

रो पड़े क्यों प्राण मेरे, याद कर क्या बात?

कौन है जो दे दिलासा,

सब तमाशा ही तमाशा ;

आज अपने शूल पर हँसते सुमन के पात !

1941

57.

आज अपने आपसे भी उठ गया विश्‍वास !

सजल जो सपने सँजोए,

नयन में मन में जुगोए,

आज वे भी जब न रह पाए, रहा क्या पास?

आस पर जिनकी चला मैं,

आज उनसे ही छला मैं,

साधना की भित्‍तियाँ भी बन गईं परिहास !

धुल गई धुँधली प्रतीक्षा,

हो गई अन्‍तिम परीक्षा ;

बुत बनी इन पुतलियों में आज गति न विलास !

अब न डोलेगा कभी मन,

अब न सिहरेगा तभी तन,

बाँध पाएगा हृदय को अब न कोई पाश !

1941

58.

बीती आधी से भी अधिक रात।

पूरब से धीरे-धीरे उठकर,

तिरता आया मन्‍थर जो हिमकर,

नमित हो रहा नित, ज्यों हो पतंग खंडित या सुरतरु का रजत-पात।

बहती पुरवैया धीरे-धीरे,

बजते बंसी-बन सरिता-तीरे,

उन्‍मन-उन्‍मन मन, सिहरन से सहमा तन, सुध कर ऐसी कौन बात?

क्या है यह, कोई बतलाए तो,

पागल इस मन को समझाए तो,

भरमाता आता, सपना बन मँड़राता , पलकों पर छलका प्रभात !

1941

59.

आज तुम यदि पास होते--

धीरता बनते हृदय की, नयन के विश्‍वास होते !

रात यह काली भयावन, गूँजता झनझन् भयस्वन,

रो रहा अम्बर अकेला, रो रहे बिजली बिना घन ;

क्यों बिलखते प्राण, प्राणों में बसे तुम काश होते !

साधना के अग्निपथ पर किस तरह अविचल चरण धर

चल रही मेरी जवानी, फल रहे फोले निरन्तर ;

देखते अपने प्रणय का नाश से विन्‍यास होते !

यन्‍त्रणा ही राग में है, वेदना अनुराग में है,

यह न जानो, जानता था मैं नहीं, क्या भाग में है ;

जानकर चलता चला हूँ, आग अन्‍तर में जुगोते !

1941

60.

मेरी खाली प्याली में भी आज नशा है !

तुमने मेरी ओर आज कुछ ऐसे ताका,

मदिराक्षी ! क्या कहूँ कि तुमने कैसे ताका?

बाणविद्ध पंछी जैसे दम तोड़ रहा हो,

एक अधूरी आस आँख में छोड़ रहा हो !

ऐसी कातर और पनीली थी वह चितवन,

ऐसा भेद-भरा उसमें था एक निवेदन !

अनजाने, जाने कब तक दृग टँगे रह गए,

धोया कितनी बार, मगर ये रँगे रह गए !

नाच रही है आज आँख में एक कहानी ;

उमड़ रही है आँसू बनकर याद पुरानी ;

नागिन बनकर किसी आँख ने मुझे डँसा है !

1943

61.

मेरे सपने ही सुख हैं, सोने दे, साथी !

दिन में, जग की चंचलता में, भूल गया पथ अपना,

मन की मधुर सफलता बन कर आया है यह सपना ;

दो पल तो मन की थकान खोने दे, साथी !

रात कटी आँखों में ; जब हो चला सवेरा - -

सपना बन आया है, मेरे अरमानों का फेरा ;

यह सपना मत छीन , लीन होने दे, साथी !

दो छिन को यह भी आया है, मुश्‍किल से आया है ;

बस, दो छिनको, मीत ! उमंगों की दुनिया लाया है ;

दो छिन तो इसके उर में रोने दे , साथी !

1943

62.

मन इसीलिए डरता था !

जीवन ही उलझ न जाय कहीं, तन इसीलिए न सिहरता था !

आँखों पर लेकिन बस न चला,

फिर चली आँख, फिर मन मचला ;

कुछ इसीलिए तो खग मेरा आँखों से आँख न भरता था !

धरना दे बैठी है पीड़ा,

दे डालूँ आज बची व्रीड़ा ;

जीवन ही माँग न ले कोई, डर से दृगदान न करता था !

अब तो बस पानी-पानी हैं,

आँखें अपनी हैरानी हैं ;

क्या अच्छा था, मैं सूने में उड़-उड़कर चाँद पकड़ता था !

1943

63.

बोलो तो प्यार किया था क्यों?

मेरे कंधों पर, बादल-सा झुक, जीवन-भार दिया था क्यों?

मेरा सपना परिचित ही था,

जो हूँ भी आज, विदित ही था,

मेरी उजड़ी फुलवारी में

आते न अगर तो हित ही था ;

ठुकराना ही था प्राण-सुमन, तो अंगीकार किया था क्यों?

तुमने मरु को मधुमास दिया,

रस-हास दिया, उल्लास दिया,

अर्पण करके उर का दर्पण

मन को खोया विश्‍वास दिया ;

बँधते-बँधते जो टूट गया, ऐसा उपहार दिया था क्यों?

1943

64.

आज मेरे गान भी हैं मूक !

काठ-सा यह तन खड़ा है,

नयन सूने में गड़ा है,

लग रहा है , हो गई है बीन ही दोटूक !

एक दिन वह था-- कि उन्‍मन

नित नई छवि थी, नया मन,

नयन में मधुमास, प्र्राणों में पिकी की कूक !

एक दिन यह है-- कि सूना

है हिया, मरु का नमूना ;

साँस लू, सब आस बालू, पास केवल हूक !

छलक पड़ती है अजाने

आज आँखें ; कौन जाने,

वह तुम्हारी थी कि मेरी बरुनियों की चूक !!

1943

65.

आज भी न पुरी, मगर यह लालसा--

आज भी न पुरी !

रो गये बादल गगन के नयन का काजल बहाकर ;

धुल गई पीड़ा धरा की, श्याम-घन-रस में नहाकर ;

पर यहाँ यह 'पी कहाँ? रे पी कहाँ?'की रट लगाए

आज भी व्याकुल पपीही-- हाय ! स्वाती-घन न आए !

जहर के मुँह में दबाए काल, मानो व्याल-सा !

आस पर जिनकी चला मैं, हाय ! उनसे ही छला मैं ;

साधना की भित्‍तियों से ही घिरा, जल में जला मैं ;

धुल गई धुँधली समीक्षा, हो चुकी अंतिम परीक्षा,

बुत बनी इन पुतलियों में थम गई जमकर प्रतीक्षा ;

मीन-जल पर छा रहा कोई जलद-धनु-जाल-सा !

1944

66.

तुम चाहोगी गान--

प्रणय के, तुम चाहोगी गान ! !

दो दिन का यह खेल-घरौंदा, तुमको प्यारा लगता ;

आँखमिचौनी का यह कौतुक जग से न्यारा लगता ;

फूल-फूल पर रीझा भौंरा तुमको ललचाता है ;

और, तितलियों का मोहक सुख मन को उकसाता है

अमराई की इस रस-ऋतु में, तुम चाहोगी तान !

पर कैसे तुमको बतलाऊँ, मैं अपनी लाचारी?

रस का लोभी होकर भी मैं बन न सका व्यापारी ;

ललचाई आँखों में मैंने पाकर मधुर इशारे--

अब तक जितने दाँव लगाए, एक-एक कर हारे ;

और आज, अब तुम आई हो, लिये मधुर मुस्कान !

1944

67.

यह चाँद आज पीला क्यों है?

चाँदी के सिक्के-सा चमचम उस रोज यही तो दिखता था,

जो किरण-करों से धरती के आँचल पर कविता लिखता था ;

उस दिन तो दूध बरसता था,

पूनों का चन्‍दा हँसता था,

पर आज वही अपने में यों खोया-सा, गीला क्यों है?

हम तो दुनिया के वासी हैं, दुनिया-भर की फरियाद लिये ;

हँसते हैं दुनिया की खातिर, घुलते रहते कुछ याद लिये ;

ऐसी अपनी लाचारी है,

जीती बाजी भी हारी है ;

लेकिन यह चाँद, इसे क्या दुख? फिर इसका दिल नीला क्यों है?

यह तो हम दुनियावाले हैं, किस्मत पर रोते चलते हैं,

जलते हैं और जलाते हैं, छल-छलकर खुद को छलते हैं ;

है जहर हमारे प्राणों में,

विष की बोली के बाणों में,

पर आज सुधा का राजा भी सूरत से जहरीला क्यों है?

1944

68.

ऐसा दुख क्यों दिया?--

दुनिया-भर का दुख देते तुम, ऐसा दुख क्यों दिया?

सहना क्या, कहना भी दूभर,

कोई भी मरहम न सके भर,

ऐसा घाव, प्राण के भीतर जिसका मुख, क्यों दिया?

मेरे प्राणों में फूटा जो,

शीशे-सा सपना टूटा जो,

बिजली-सा घन से छूटा जो, ऐसा सुख क्यों दिया?

ललचाना ही था लोचन को,

कलपाना ही था यदि मन को,

यही विषय था, तो जीवन को वह आमुख क्यों दिया?

1944

69.

बीती बात भुला लेने दो !

मैं लूँ समझ कि सब सपना था,

जो कुछ था, भ्रम-भर अपना था ;

इस रस में क्या स्वाद मिलेगा?

मन को और घुला लेने दो !

ठंढी तो हो ही जाएँगी,

बादल बन जब ये छाएँगी,

कुछ दिन तो तल की ज्वाला में

चाहों को अकुला लेने दो !

इतने तड़के आज पधारे !--

जाग रहे जब दीये-तारे ;

ठहरोगे? ठहरो, आँखों की

गीली धूल धुला लेने दो !

1944

70.

न हँसते हैं, न रोते हैं !

बहुत-कुछ दे चुके लेकर,

बहुत-कुछ ले चुके देकर ;

कहाँ से चल, कहाँ आए,

तरंगों में तरी खेकर ;

खड़े इस तीर पर अब हम

न पाते हैं , न खोते हैं !

बढ़ी सरिता, गई लेती

उमंगों की हरी खेती ;

किनारे पर उगी है अब

महज सूखी मरी रेती ;

गले बीये, छले माली,

न उगते हैं, न बोते हैं !

अँधेरे में उजाला हो,

गरल-घट प्रेम-प्याला हो--

रहे अपना लहू देते

कि भू का मुँह न काला हो ;

मगर, कुछ दाग ऐसे हैं,

न धुलते हैं, न धोते हैं !

समुन्‍दर छान जीवन के

रतन लाते रहे मन के ;

कटीं रातें, दिवस कितने,

लुटाते लाभ लोचन के ;

अभी चुप हैं कि झुटपुट है,

न जगते हैं, न सोते हैं !

1948

71.

अब है क्या, जो लिये चलूँ मैं?

सुध का मीठा भार तुम्हारा

जीवन का था शेष सहारा ;

वह भी हार चुका जब तुमको,

क्या लेकर अब जिये चलूँ मैं?

कुश गड़ते ही रहे राह-भर,

पग बढ़ते ही रहे, आह भर ;

इब इस तार-तार चादर को

किस आशा से सिये चलूँ मैं?

नयनों की अनजान चपलता

जीवन की बन गई विफलता ;

अब अपने इन पाषाणों को

मोती कैसे किये चलूँ मैं?

1944

72.

नाता टूट गया जग से जब, नाता टूट गया--

तुम्हारा नाता टूट गया !

बोलो तो, हे नभ की रानी !

क्या, सचमुच, वह थी नादानी?- -

नयनों में मेरा सैलानी मन जो छूट गया !

नीरधि में डुबकियाँ लगाकर

मैंने मोती रखे चुराकर ;

पर किसका वह ध्यान? कि आकर सब कुछ लूट गया !

चाँद, जिसे लहरों ने घेरा,

आज स्वयं बन गया अँधेरा ;

एक - एक कर सपना मेरा फूला, फूट गया !

1944

73.

आओ, बैठा जाय--

आओ, बैठा जाय यहाँ, कुछ देर बैठा जाय !

दूबों का मखमली गलीचा,

धरती की ममता से सींचा,

खुली चाँदनी, धुला बगीचा,

आओ, बैठ यहाँ वह कौतुक फिर दुहराया जाय !

जीवन में ऐसे सुख के छिन

गिने-चुने होते हैं, लेकिन,

भूले नहीं भूलते वे दिन ;

आओ, उस दिन-सा, आँखों-आँखों मुसकाया जाय ! 1944

74.

उधर चाँदनी, इधर अमा है-- यह भी कैसी रात !

सपना है, जो सत्य बना था,

ज्योति बना, जो तिमिर घन था;

आँखों में शशि की संध्या है, पाँखों में रवि-प्रात !

सीप डूबते मिलन-कूल पर,

मोती उगते विरह-धूल पर ;

सागर में लू, सागर-तट पर अस्रधार बरसात !

अन्‍त:पुर में कुसुमसमय है,

दृश्यद्वार पर सीतप्रलय है ;

फूले प्राण-मघूलक मेरे, जड़ीभूत जलजात !

1954

75.

यदि मुग्ध कमलिनी के मधु से स्वर के पर बरबस बँध जाएँ

तो मधुकर का क्या दोष?

जिसके ऊर्म्मिल उर पर झुकके रजनी ने लूट लिया, चुपके,

रत्‍नों का तारक-हार ;

जिसका पीकर पीयूष, गरल तक पचा गया सुरलोक,

बचाकर केवल हाहाकार ;

जिसके जीवन में आग लगा विधि ने सारी मधुता छीनी,

छीना कलरव-गुंजार ;

जड़ता का वह शृंगार कि जो गलकर करुणा का तार बना,

बाँधे रज का संसार ;

शशि के देखे से आपे में से वह रह न सके, लहरा जाए,

तो सागर का क्या दोष?

1952

76.

मुँह फेरे, ओ चन्‍दा मेरे ! अब तो मेरी ओर मुड़ो !

अब कितना टक बाँधें तारे?

कुमुदनयन भी इनसे हारे !

अपना ही मृग मान इन्‍हें भी, दृग को दृग दो और जुड़ो !

सिन्‍धु यहाँ भी लहराता है,

मेघ यहाँ भी घहराता है,

अथक मिचौनी का मन हो तो इन तारों से मत बिछुड़ो !

आओ, तुमको अंजन कर दूँ,

चितवन देकर खंजन कर दूँ,

पाँख करो मेरी पलकों को, बाँधो, मेरे व्योम उड़ो !

1954

77.

कुछ और गवा लो गीत, मीत !

चाँदनी गगन में है जब तक,

गाने ही दो मुझको, भरसक ;

यह कंठ मिलाने की बेलाआँखों में ही मत जाय बीत !

जागी है जबतक मोमशिखा,

नभ पर है आँसू-लेख लिखा,

इन जलते छन्‍दों में ही प्रिय ! दुहराने दो गीला अतीत !

बस, ऐसे ही झाँकते रहो,

लहरों पर छवि आँकते रहो--

जब तक न तुम्हारा दाग धुले, मेरा स्वर-सिन्‍धु न जाय रीत !

1954

78.

मेरे गीतों को भी प्यार मिलेगा क्या !!

कलियाँ हो जाएँगी बासी,

जब तक आएगी पुनवाँसी !

पतझर के काँटों में फूल खिलेगा क्या !

काँटे जो लगते आए हैं,

लाल-गुलाबी दल लाए हैं !

इनसे पत्थर का भी मर्म छिलेगा क्या !

सूई भी है, डोरा भी है

शशि है, और चकोरा भी है !

टाँके पाकर मेरा घाव सिलेगा क्या !

1954

79.

जब से तुम तारों में आए,

बादल ही रहते हैं छाए !

मैं रूप निहारूँ, तो कैसे?

जिनमें मोती भर आते हैं,

वे सीप स्वयं मुँद जाते हैं ;

मेरे तो बन्‍दी बिन्‍दु तुम्हीं,

बन्‍धन भी मेरे, सिन्‍धु तुम्हीं !

मैं आँख उघारूँ, तो कैसे?

आकाश खुला मिल जाता है,

तो क्या-क्या गुल खिल जाता है !

तुमने जो आँज दिये लोचन,

उड़ना भी भूल गए खंजन !

मैं पाँख पसारूँ, तो कैसे?

लहरों के चित्र, पवन-प्रेरित,

हो जाते हैं तट पर अंकित ;

पर मैं, जिसमें तुम काँप रहे,

तटहीन बनाकर भाँप रहे !

यह चित्र उतारूँ, तो कैसे?

1954

हिमशिखर

रचनाओं के शीर्षकों की सूची नीचे दें

1

हिमशिखर

2

दुनिया ना मानेगी कब तक?

3

चाँद की चुनौती

4

तट के फेन

5

शहीद-गीत

6

शब्दवेध

7

सावधान !

8

सत्यरथ !

9

चुनौतियाँ

10

नया विहान

11

सँजीवन

12

कौन-सा तारा

13

आह्वान

14

चुटकी में प्राणहैं

15

रहने दो, चाप चढ़ाओ मत

16

दिवकुसुम

17

क्या तू भी ऐसे कभी तड़प उठती है?

18

निश्छल अंतर

19

कवींद्र रवींद्र

20

महर्षि - दीप

21

बापू

22

हे तुलसी !

23

मैं तो रस के बस था

24

हे तीर्थड्कर

25

क्या पाप मेरा प्यार है? प्रिय !

26

मैं ही केवल दीवाना

27

इस जग में केवल जलना है

28

यह भी तो न हुआ

29

यह कैसा निर्माण?

30

बयालीस की दीवाली

31

खामोश धुआँ

32

हो गया असंभव भी संभव

33

राष्ट्रपिता

34

क्यों दिया यह दान?

35

दो दिन का साथ

36

कौन-से ये मेघ छाए?

 

रचनाएँ

हिमशिखर

अपने सुख-दुख की बात कहो तुम अपने से ;

किसको इतना अवकाश तुम्हारा मन देखे !

जिसमें निज रूप निहार ऊषा शरमा जाती,

बिम्बित शत-शत शतपत्रों पर भरमा जाती ;

बिंधकर जिसके हिम-अंक, अनलपंखोंवाली

किरणों की क्रूर शलाका भी नरमा जाती ;

दिव ही जाने, उसके दिल पर क्या होता है--

अवनीतल को क्या ज्ञात, शिखर क्या होता है !

खेतों का मोर, गरुड़ या हंस नहीं होता !

किस भाँति हिमाचल का नीरज-दर्पण देखे?

मिट्‍टी के बरतन और खिलौने सस्ते हैं,

दो क्षण इनसे ही लोग हँसाते-हँसते हैं ;

किस हेतु जुगोया जाय नयन-घट में पानी?

हर ओर हजार दृगों से इन्‍द्र बरसते हैं !

टीला होते तो खेत भले तुम हो जाते !

हिमतल के समतल से कैसे निबहें नाते?

विद्युद्‍घन भी कटिबंध बने रह जाते हैं ;

धूमल दृग फिर किस भाँति तुहिन का तन देखे?

जीवनदानी बन देह गलाते रहते हो ;

क्या पीर नहीं, पर-हित, प्राणों में सहते हो?

दिग्दाह दयारों को जब रेत बनाता है,

तुम आप उमड़ सौ-सौ आँखों से बहते हो !

तुमसे उर्वर होनेवाला ऊसर-ऊसर

प्रतिदान तुम्हें क्या देता है? दानी भूधर !

संचय खोने में लाभ तुम्हीं समझो, ज्ञानी !

धरती ऐसे उत्सर्जन में क्या धन देखे !!

1954

दुनिया ना मानेगी कब तक?

दुनिया ना मानेगी कब तक?

दुनिया से तू ऊपर उठ जा

भूधर होकर भू पर उठ जा

चट्‍टान बना ले तन अपना

हिमवान बना ले मन अपना

फिर देख कि फेरों के बादल--

ये वज्र गिरानेवाले दल --

किस भाँति कहाँ तक आते हैं

किस-किस ढब से टकराते हैं

क्या-क्या हो कर भहराते हैं

पानी होकर बह जाते हैं !

घनघोर घटा के घेरे से

ऊपर तेरी वह ऊँचाई

दुनिया ना जानेगी कब तक?

दुनिया तुझसे जो रूठ गई

तेरी हिम्मत क्यों टूट गई?

दुनिया चलती है, तू भी चल

दुनिया के चक्कर से न बिचल

चल दे, खुद बन जाएगा पथ

दो पद ही तो पौरुष के रथ

जब तू आगे बढ़ जाएगा

संसार स्वयं तब आएगा

अपनी गति पर पछताएगा

रो-रोकर मान मनाएगा

बढ़ता जा मेरे सत्यवान !

मत सोच कि तेरा सत्य मान

दुनिया पहचानेगी कबतक।

1948

चाँद की चुनौती

कलेजा हो किसी के पास, मेरा प्यार पाले !!

समुन्‍दर का हिया हो तो, किरन का हार पा ले !!

बहुत नजरें मिलाने को यहाँ मिलते सनेही ;

नजर का जर चुराने को यहाँ मिलते सनेही ;

तितलियों की कमी क्या है , कहीं जो गुल खिला हो !

महज कुछ गुल खिलाने को यहाँ मिलते सनेही ;

मगर वह कौन है, जो प्राण में अंगार पाले?

यहाँ तो लौ-लपट को ही सनेही मान देते हैं--

कि दीये देह लेकर नेह का ईमान देते हैं !

नहीं वह प्रेम, जो फानूस के छल से चमकता है,

मगर, फिर भी, उस छल पर पतंगे जान देते हैं !

कहाँ वह लौ कि जो लौ-सा अजर संसार पाले?

किसी का लूट रस-सरबस, मदोन्मद, लड़खड़ाता

भ्रमर लम्‍पट कली के पास आता, गुनगुनाता ;

निरी नादान क्या जाने, छली का मर्म क्या है?--

कली लुटती, अली रस पी, नई पाँखें लगाता !

कहाँ वह दिल जहाँ में, जो दिये दिल को सँभाले?

1948

तट के फेन

डुबा एक को तीन-चार यदि बच जाएँ तो,

नीति यही कहती है, कुछ परवाह नहीं !

बँधी लीक पर चलनेवाली दुनियादारी--

क्यों बूझे, यह कला-तीर्थ की राह नहीं !

पार्थिव सुख के पीछे मरनेवाली दुनिया

कलाकार को ठीक समझ भी पाती है?

लोकोत्‍तर संगीत गले से पाती जिसके,

उसी गले पर स्वार्थी छुरी पजाती है !

मस्ती इनका दोष, हवा से बज उठते हैं ;

बाँस तभी तो काटे छेदे जाते हैं !

शीतल गंध लुटाने से ही तो वनचन्‍दन

साँपों से घिरते हैं, चिता सजाते हैं !

तल के निश्‍छल बिन्‍दु हवा का मन क्या जानें?

लगी नहीं कि लगे ये उसके साथ उड़े !

चढ़े चाप पर, पाकर चोटी का आमन्‍त्रण !

गगन ! देख तो सही कि ये किस ओर मुड़े !

1951

शहीद-गीत

जगमगा रहा दिया मजार पर !

एक ही दिया,सनेह से भरा ;

प्रेम का प्रकाश, प्रेम से धरा ;

झिलमिला हवा को तिलमिला रहा ;

ज्योति का निशान जो हिला रहा ;

मुस्कुरा रहा है अंधकार पर !

यह मजार है किसी शहीद का,

दर्शनीय था जो चाँद ईद का ;

देश का सपूत था, गुमान था,

सत्य का स्वरूप, नौजवान था ;

जो चला किया सदा दुधार पर !

देश का दलन, दुसह दुराज वह,

वे कुरीतियाँ, दलित समाज वह,

वे गुलामियाँ जो पीसती रहीं,

वे अनीतियाँ जो टीसती रहीं,

वह दमन का चक्र अश्रुधार पर--

देख आँख में लहू उतर गया,

पंख चैन के कोई कुतर गया ;

धधक उठी आग अंग-अंग में,

खौल उठा विष उमंग-उमंग में ;

चल पड़ा अमर, अमर पुकार पर !

वह जिधर चला, जवानियाँ चलीं,

बाढ़ की विकल रवानियाँ चलीं,

नाश की नई निशानियाँ चलीं,

इन्‍कलाब की कहानियाँ चलीं ;

फूल के चरण चले अँगार पर !

दम्भ का जहाँ-जहाँ पड़ाव था,

सत्य से जहाँ-जहाँ दुराव था,

वह चला, कि अग्निबाण मारता,

पाप की अटा-अटा उजाड़ता,

वज्र बन गिरा, गिरे विचार पर !

आज देश के उसी सपूत की,

राष्‍ट्र के शहीद, अग्रदूत की--

शान्‍ति की मशाल जो लिये चला

क्रांति के कमाल जो किये चला--

लौ जुगा रहा दिया मजार पर !

1946

शब्दवेध

विज्ञान दक्ष यजमान ; नध रहा विश्‍वमेध ;

तब, यह किसका सन्‍धान? सध रहा शब्दवेध ! -

'मन बन्‍धन माँग रहा, मन के बन्‍धन तोड़ो ;

ये जड़ बन्‍धन बेकार ; तार चिन्‍मय जोड़ो'।

तुम आज बहुत दिन पर आईं, मन की रानी !

तुम आज बहुत दिन पर लाईं, मन की बानी !

मेरे जीवन की सरिता का फिर खुला स्रोत ;

फिर चली धार, तिर चले तीर-से भाव-पोत।

मरु में जैसे अन्‍त:सलिला की धार लीन,

स्वर-सरिता थी हो गई बीच में ही विलीन,

मैं बालू का था ढेर, ढेर हो रहे प्राण ;

व्याकुल थे वर्षण की तृष्‍णा से बिन्‍दु-बाण।

तुम, सहसा, श्याम घटा बन छाईं, पक्षि-प्राण !

उमड़ा-उमड़ा अन्‍तस् , पावस का आसमान।

मरु के तप ने तुमको पाया, ज्यों प्रथम सिद्धि ;

तरु ने पाया जीवन ; जीवन ने कला-वृद्धि ;

तुम नाच उठीं, झमझम बरसा सावन भावन ;

मन थिरका शतदृग-मोर, कि प्राण बने शिंजन ;

काजल की घनी बरुनियों में कजली का मन ;

'पी कहाँ?' पपीहा बोल उठा, उन्‍मन बन-बन ;

'पी कहाँ?' रटे पियराए आमों के यौवन--

कि बजा घन-घन, घनघना उठा आकाश सघन--

'पी यहाँ, यहाँ रे, यहाँ, प्राण !' हृन्‍नयन खोल ;

ज्ञानान्‍ध ! प्रेम की कूँजी ले अन्‍तर टटोल ;

आँखों के मन की बाढ़ देख, जल ही जल है !

दिव्याक्ष ! खोल, आँखें, गवाक्ष अन्‍तस्तल है !'

मुसकाया फूलों का आनन, कलिका-कानन ;

लहराया अम्बर नील, मेघ-गागर का मन ;

सरसाया मधुवन का आँगन, तन-मन भींगा ;

भरमाया मेघ, धरा का धूल-बसन भींगा ;

दूबों की पहली लाज हुई पानी-पानी ;

निर्झरिणी दौड़ पड़ी शिखरों से, दीवानी ;

चल पड़े हंस-निर्झर शैलों से सैलानी ;

सीकर पग-झंकृत झाँझ, चली झंझा रानी ;

मुक्‍ता-मणियों के रास ; हार-हीरक टूटे ;

राधा के बन के गान, कण्ठ-कीचक फूटे ;

रोमांच गुलाबों के तन में, काँपे कदम्ब ;

लतिकाओं का अंचल सरका, सिहरे कलम्ब ;

अलका वियोगिनी बीन, श्‍वास बन गए तार ;

साधनालाप, स्थायी वियोग, अन्‍तरा ज्वार ;

आहों में बोला षड्‍ज, दाह में ऋषभ-नाद ;

मध्यम में हूक, जगी कोमल गान्‍धार याद ;

धैवत गुणवादी चित्‍त बना अनहद निनाद ;

उन्‍माद मेघ-मल्हार प्रवासी-प्रियाह्‍लाद ;

तुम गगन-रन्‍ध्र में रागीं, रानी बना त्याग ;

खांडव के भव में नव-मरन्‍द-परिमल-पराग ;

रसमयी रसा के रोम-रोम में अभिनन्‍दन ;

हरिदाभ दाभ उन्नयन, अर्चना के वन्‍दन ;

फिर राम-शृंग पर घनन्‍नाद उतरे विमान ;

बूँदों के बंदनवार टँगे छाया-वितान ;

सुरधनु का मण्डप तना, सुधर्मा की हलचल ;

हलचल-हलचल सब ओर, पवन चंचल चलदल ;

कानाफूसी हो रही-- पात से पात बोल

अलकापति के उद्‍दण्ड दण्ड को रहे तोल ;

आँखों-आँखों संकेत चले, बिजली चमकी,

किन्नरियों की स्वरपरता-तत्परता तमकी ;

बन्‍दी दुलार उन्मुक्‍त प्यार का बना छंद ;

धृतपवनपक्ष उड़ चले यक्ष-धावन अमंद ;

निर्ममता का हो गया प्रेम से प्रतीकार ;

रीझे कुबेर ; जड़ता पर विजयी कलाकार।

ओ कलाकार की कल्याणी, कवि की रानी!

तुम भूल नहीं पाई मुझको, मेरी वाणी !

तुम ऐसे आईं आज, कहूँ कैसे आईं !

जीवन के शरन्‍नयन में जैसे सरसाईं !

नीलम के दरपन में पूनम की परछाई !

किरणों की धरकर डोर लहर पर लहराई !!

आओ, मेरी जीवनधारा, आओ, आओ ;

आओ, मेरे सागर में, प्राण ! समा जाओ ;

आओ, मेरे अंत:पुर की अन्‍तर्वाणी !

आओ, मेरी युग-युग की जानी-पहचानी !

तुम 'मैं' हो जाओ, प्राण ! और मैं 'तुम' होऊँ ;

तुम चंचलता, मैं जीवन की जड़ता खोऊँ।

ओ कलाकार की कल्याणी, कविता-रानी !

तुम आज बहुत दिन पर आईं, मेरी वाणी !!

1950

सावधान

जाग रहा तूफान, माँझी, सावधान !

चलने को रात-रहे तुम चल दिये,

ताक गगन के तीर, भँवों पर बल दिये--

भीषण प्रलयी भाव-भ्रमों को भाँपते,

चावों के पाँवों से सागर नापते--

आप बना था यान, लहरों का उफान।

घोर अमा का जोर, तिमिर सब ओर था,

तारों के मन में भी कोई चोर था ;

सुन तट का आह्‍वान, चले तुम ज्वार पर,

स्वर्णोदय-सा देख क्षितिज के क्षार पर ;

जोह रही थी आँख, आँखों का बिहान।

देख तुम्हारा केतु, घटा घुमड़ा गई ;

देख तुम्हारा तेज, तड़ित् शरमा गई,

देख तुम्हारा वेग, हवा घबरा गई ;

देख तुम्हें मँझधार, लहर चकरा गई ;

पर न रुका अभियान, भा-रत, ओ महान् !

बहता बेड़ा पार लगाना है तुम्हें ;

आँधी में मधु-दीप जलाना है तुम्हें ;

चमके प्राची-चक्र, कि लोक अशोक हो,

भूमण्डल पर राम-राज्य का लोक हो !

बनो शान्‍ति के मान, भव के स्वाभिमान !

1952

सत्यरथ

बढ़ते चलो, हे सत्यरथ ! बढ़ते चलो, बढ़ते चलो।

हर ओर बादल छा रहे,

घहरा रहे, हहरा रहे,

काले क्षितिज के क्षेत्र में

विद्युद्‍ध्वजा फहरा रहे ;

धमका रहा पर्वत-शिखर,

शर छोड़ निर्झर के प्रखर ;

बस, सावधान ! वहीं ठहर !

-- गुर्रा रहे दिग्‍दिङ्‍ मुखर ;

नटराज के दृग से कढ़ा,

भूचाल के रथ पर चढ़ा,

तूफान को ललकारता

संवर्त आता है बढ़ा ;

पर, कढ़ चले, तब तर्क क्या? हे क्रांतिपद ! कढ़ते चलो।

क्या-क्या न दुख तुमने सहे !--

सागर उबलते ही रहे,

दिग्गज मचलते ही रहे,

घन पवि उगलते ही रहे ;

दो-टूक आशा हो गई,

नौका तमाशा हो गई,

हर डाँड़ छूटी हाथ से,

पतवार टूटी, खो गई ;

ऐसे विकट परिवेश में,

उद्धत प्रलय के देश में,

हिचके न तुम, पिचके न तुम,

जब मृत्यु के आश्‍लेष में,

तब आज क्या रुकना, हठी ! हर विघ्न से लड़ते चलो।

दावाग्नि की भीषण लपट,

उत्कट प्रभंजन की झपट,

वन के विकट संकट-शकट--

सब एक भ्रृकुटि से डपट,

किस विश्‍वजित् अभिमान से

बढ़ते चले तुम शान से !--

अणु के प्रलय- हयमेध में

मनु के अभय अभियान-से--

कि निरख जिसे नभ झुक गया,

रवि सारथी भी रुक गया ;

पथ में पड़ा जो वक्र ग्रह,

वह लुक गया, या,चुक गया ;

उस गर्व-गति से आज भी अपना गमन गढ़ते चलो।

धधके ज्वलन, न जला सके ;

उखड़े पवन, न उड़ा सके ;

उमड़े अतल, न डुबा सके ;

रजकण तुम्हें न मिटा सके ;

आकाश भी खुद खो गया,

लय-सा तुम्हीं में हो गया,

स्वर में तुम्हारे गूँजकर

कुछ हँस गया, कुछ रो गया ;

तुमसे विजित हर तत्व की

जड़ शक्‍ति क्या, अमरत्व भी

नारे लगाने लग गया--

जय हो मनुज के सत्व की !

उस कीर्ति को अपने रजत-बलिदान से मढ़ते चलो।

1942

चुनौतियाँ

तुम नवीन देश के गुमान हो,

मान हो, स्वतंत्रता-प्रमाण हो ;

सत्य की कमान पर तुले हुए

त्याग के अमोघ अग्निबाण हो।

तुम अमर समर- सुधी सुधीर हो,

वीर हो, जगज्जयी प्रवीर हो ;

होलिका-दहन-युगान्‍त-पर्व में

विश्‍व के गुलाल हो, अबीर हो।

अग्नि बन समुद्र में जले तुम्हीं ;

घोषणा किये विदिग् बले तुम्हीं ;

गर्व से उठे, हिमाद्रि बन गए ;

लोक के लिए पिघल चले तुम्हीं।

धर्म की धरा-धुरी धरे हुए,

कर्म के अपार को तरे हुए ;

सत्य की हरेक जाँच-आँच में

तुम तपे सुवर्ण-से खरे हुए।

आज फिर पड़ी हुई कमान है,

दे रहा चुनौतियाँ जहाँ है,

भूमि का हिया करे मुदित कोई--

आज फिर तुम्हारा इम्तिहान है !!

1946

नया बिहान

नया बिहान है, नया कमल खिला !

नया कमल खिला !!

गई गुलाम दीनता

मरी पड़ी अधीनता

दिमागो-दिल बुलंद हैं

बँधे-बँधे न छंद हैं

विवर्ण देश को सुवर्ण-हल मिला !

अरुण जो लाल-लाल है

गगन का ही कमाल है

कि धर धरा को ढाल पर

रगड़ दिया है थाल-भर

गुलाल गोल गाल पर

कि आज ही स्वदेश को सुफल मिला !

अपूर्व आज पर्व है !

कि भूमि ही सगर्व है--

यही सही स्वतंत्र दिन

पवित्र मुक्‍ति-मंत्र दिन

अशोक-लोकतन्‍त्र-दिन !

समस्त शोषितों को आज बल मिला !

कि दिन है आज ध्यान का

शहीदों के गुमान का--

लहू जो आप दे गए

हमारे पाप ले गए

हमें प्रताप दे गए

लहू का आसमाँ में उठ रहा किला !

नयी बहार देखें अब

नया सिंगार देखें अब

कि भूमि तो हरी-भरी

वरुणदिशा सिताम्बरी

उदयदिशा है केसरी

अनन्‍त में तिरंग का पटल खिला !

यही शपथ लें आज हम--

रखेंगे इसकी लाज हम

जिएँगे देश के लिए

मरेंगे देश के लिए

बनेंगे देश के दिये

मिटाएँगे हमी तमी का सिलसिला !

नया कमल खिला !!

1948

सँजीवन

आदमीयत की जड़ें जिस जहर से सड़ने लगी थीं

सभ्यता की शाख से चिनगारियाँ झड़ने लगी थीं

अनगिनत हरियालियों की राख है जिसकी निशानी

और यह नीला पड़ा आकाश है जिसकी कहानी

वह जलन, वह जहर हरने जो चला अकसीर बनके

पच न पाया वह सँजीवन, पेट में पापी भुवन के !

अखिल संसृति की तपस्या देह धर जो आ गई थी

छाँह बन शिशुवत्सला की विश्‍वजन पर छा गई थी

सुरभि-पय-पीयूष स्रवता ही रहा जिसके हिये से

ताप गलता ही रहा करुणाभरण अपलक दिये से

स्वर्ग की ममता मिली ज्यों मर्त्य को मधुक्षीर बनके

पच न पाया वह सँजीवन, पेट में पापी भुवन के !

नव-नयन में उन्नयन-विज्ञान की क्या ज्योति जागी

पतित-तम-पथ पर पलटकर सभ्यता भागी अभागी

आदमीयत की वसीयत--सृष्‍टि के श्रम की कमाई

प्रेम, करुणा, एकता-- क्या निधि नहीं हमने गँवाई

और, वह जीवन, मिला जो आखिरी तदबीर बनके

पच न पाया हाय ! वह भी पेट में पापी भुवन के !

कोटि जग उर के सुलग जी-जग उठे, जिसके जगाए

हँस रहे वीरान भी फलवान बन जिसके लगाए

मृत्‍तिका की पुतलियों में फूँक जीवन की शिखाएँ

धो गया अपने लहू से जो धरातल की बलाएँ

जा बसा सुर-कंठ में वह अब नयी तकदीर बनके

पच न पाया जो सँजीवन, पेट में पापी भुवन के !

1948

कौन-सा तारा?

वह कौन-सा तारा? सखे !

प्राची-दिशा-भू-भाल पर

लहरे तिमिर-कच-जाल पर

बन माँग का टीका सुभग

जो खिल रहा चकवाल पर

लघु लाल-सा ; क्या कह रहा?

वह कह रहा-- 'भू-पुत्र मैं

कब ध्वान्‍त से हारा? सखे !'

तारा नहीं, वह ग्रह ललित,

मंगल-कलित, विद्रुम-वलित,

वह माँ मही का ही सुवन,

श्रद्धा-सहित-मति से चलित,

सर्वंसहा-सा सह रहा

झोंके अनन्‍त, अनन्‍त के ;

सच्चा सकलहारा, सखे !

तारे, सखे ! गतिहीन हैं,

जड़वत् जलन से दीन हैं,

जो, देख ग्रह-गति को, बने

जलते तवे के मीन हैं ;

ग्रह-ग्रह गतिग्रह लह रहा,

दृग टिमटिमाता रह गया

उडु-दल अफल सारा, सखे !

तुमको भूले लघु लग रहा

वह दूर से-- ज्यों टँग रहा--

पर जग रहा सज्ज्योति से

अपनी लगन में पग रहा,

ख-तरंग को वह गह रहा ;

कब क्रान्‍त-प्रान्‍त-जयिष्णु को

रजनी बनी कारा? सखे !

1948

आह्वान

कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो !--

कोड़ते चलो !!

इस जमीन में हजारों धन-भरे घड़े

व्यर्थ हैं पड़े, समाज-पाप से गड़े ;

बन्‍द है विकास, कोष-कैद में पड़े;

लाखों-लाख गुल--शराब के लिए-- सड़े ;

ये गड़े लहू के घड़े फोड़ते चलो !!

कोड़ते चलो !!

सूख गई धार यहाँ धूर हुई रेत ;

एक बियाबान, जहाँ जिन्‍दगी अचेत,

आते नहीं मेह, मधुर भूल गए हेत ;

टाँड़- टाँड़ कास हँसे ; बाग-बाग बेंत !

मेह बनो, धार नई छोड़ते चलो !

कोड़ते चलो !!

सैकड़ों पसार शाख , फैल सभी ओर,

भूमि में हजारों गोड़-गोड़ सूँड़-सोर,

लाखों-लाख पौधों के आधार छीन-छोर

फैले सात-पाँच बड़े रूख भूमि-चोर ;

भूमि के लिए इन्हें मरोड़ते चलो !

कोड़ते चलो !!

राह बँधी, चाह बँधी, आह भी बँधी ;

कोटि-कोटि बेपनाह जिन्‍दगी बँधी ;

कोठियाँ खुलीं, कि मुक्‍ति की मही बँधी ;

सड़ गई यहाँ बयार तक बँधी-बँधी ;

ये सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो !

कोड़ते चलो!!

1951

चुटकी में प्राण हैं

फिर घेरा डाल रहा है कोई घेरके ;

यह ममता का गुण है या छल का जाल है?

खोकर जो अपना केन्‍द्र परिधि-सा आप है--

फिर बिन्‍दु बनाने आई विधि की चाल है !

अधिकार तुम्हारा है भी? जो अधिकार का

आकाश तुम्हारा बाँध रहा है आग को ;

दिल छील रहे छुरियों से, छल की धार से,

पर धो भी क्या सकते हो तुम इस दाग को?

चुटकियाँ चटखती हैं, चुटकी में प्राण हैं ;

मसले हैं मेरे फूल, तुम्हारी जीत है !

मेरी हारों के हार पहन तुम हँस रहे ;

हारों में गूँज रहा मेरा जय-गीत है !

मोहक यह घेरा मोह कहीं जो बन गया,

कोमल ! तुम कैसे झेल सकोगे पीर वह?

जलपरियों की जो आँखमिचौनी आज है,

भय है, बन जाए ज्वाल न छलका नीर वह !

1951

रहने दो चाप चढ़ाओ मत

अधरों पर लोट रही रसना--

तट पर लघु रोहित नीरमना !

अनुराग-सजल-पट पर छटपट

जलधरबसना बिजलीदशना !!

आधा ही जाम दिया तुमने--

क्या जालिम काम किया तुमने !

रह भी न सके, बह भी न सके ;

अच्छा बदनाम किया तुमने !!

रहने दो, चाप चढ़ाओ मत ;

तारों पर तीर चलाओ मत ;

यह दाग? यहीं था चाँद कभी ;

इसको अब चाँद बनाओ मत !!

भौरों के होंठ लगाओ मत ;

प्यालों को व्यर्थ लजाओ मत !

तलछट-भर शेष यहाँ, साकी !

प्राणों की प्यास बढ़ाओ मत !!

क्यों पोंछ रहे मुँह पल्लव का--

मिट जाय तरस मधु-आसव का?

बढ़ जाय कहीं कुछ और न लौ--

अलि ! खेल नहीं बुझना दव का !!

1951

दिवकुसुम

अभ्यर्थना का भी नहीं साहस रहा।

अब क्या कहूँ, कैसे कहूँ?

चुप भी मगर कैसे रहूँ?

किस भाँति मेरा भाव ही मेरे हृदय को कस रहा !

धारा बनी हो बाढ़ जब,

बह जाय तट तो क्या अजब !

अपनी अबलता की सबलता पर न मेरा बस रहा !

तुम तो, परन्‍तु, सहज सदय,

पद में तुम्हारे कौन भय?

कर दो उसे भी चन्‍द्रमणि, जो नाग मन को डँस रहा !

मेरी भ्रमरता क्षुब्ध है,

चक्षु:श्रवा मन लुब्ध है,

दृग में चकोरी-चाह के, लांछन तुम्हारा बस रहा !

अपने सजल निर्मल नयन

भर दो, कि धुल खिल जाय मन ;

छवि- भाव कवि का आप अपनी भावना पर हँस रहा !

अब तुम न ‘तुम’ मेरे लिए,

हो दिवकुसुम मेरे लिए ;

आराध्य हो-- वह फूल जो भर धूल में भी रस रहा !

1951

क्या तू भी ऐसे कभी तड़प उठती है?

तड़पा देते हैं मुझको तेरे सपने ;

क्या तू भी ऐसे कभी तड़प उठती है?

कुछ तेरे तारों भी तिर आता है क्या?

जैसे तू मेरी आँखों में छप उठती है !

तूने जो भूल-भुलैया में डोरी दी,

मैं चलने लगा सहारा तेरा लेकर ;

गुण तोड़, छोड़ क्या गई, देख जा, निर्मम !

दे गई मुझे तारे, शशि मेरा लेकर !

तेरी अबूझ इस लीला को क्या बूझूँ?

अचरज क्या, जो सम्मुख भी तुझे न सूझूँ?

विश्‍वास-पक्ष ही जब गिर गया किले का,

मैं तर्कों की दीवारों से क्या जूझूँ !

उफ् ! गंध-कीट यह कहाँ छिपा था घाती?

धोई थी पँखुरी-पँखुरी, पाती-पाती !

यों पुन: परीक्षित किया मुझे क्यों डँसकर?

किसका बिगड़ा? तेरी ही तो थी थाती !!

1951

निश्‍छल अन्‍तर

निश्‍छल अन्‍तर छल पर ढलकर अपनी आँखों दयनीय हुआ !!

रज के तारों की क्या चर्चा, रजनी के तारों को देखो !

मन के हारे क्या होते हैं, अपने से हारों को देखो ;

इतने ऊँचे चढ़नेवाले, ऐसी गति से चलनेवाले,

भू के खींचे भू पर आए, टूटे बेचारों को देखो ;

तारे तो घुल-घुल ओस हुए, अवनी ने दिखलाई माया--

अभिनन्‍दन का सामान किया, दुधिया पलकों पर बिठलाया !

मन में पाताल रहा रमता, मुँह पर छलकी नभ की ममता ;

तारों ने जग को नहलाया, जग ने तारों को बहलाया !

यह तो कहिए, दिन उग आया, झूठा मुँह का कमनीय हुआ !!

धरती का मुँह जोहा करता जो चाँद, चकोर बना, ऊपर,

कटते-कटते कट जाता है, लुट जाता है, नभ से चूकर ;

ज्वारों पर आता है तो पाता है उपहास, कलंकी है !

मिट जाता है बेचारा, तो मनती है दीवाली भू पर !

आदृत होता है चाँद-- कि वह भू के सिर के भी सिर पर है,

देवों में है गिनती उसकी, वह गंगाधर का शेखर है !

मिट्‍टी, तेरी भी बलिहारी ! शिव की तो हो पार्थिव पूजा,

शिवशेखर हो बदनाम कि वह ताराप्रिय है, लांछनधर है !

महि पर न्योछावर चाँद महज मुँहदेखे का महनीय हुआ !!

रौंदी जाकर सूखी माटी, श्रम का जीवन बेहाल हुई ;

चावों के चाक चढ़ी नाची, पाकर कर-परस निहाल हुई !

भँवरी को भाव मिला मन का, वैभव साकार खिला तन का ;

तप के आँवे में लाल हुई, माटी की देह कमाल हुई !

तन-मन तो सुन्‍दर बन आए, पर जीवन धन्य बने कैसे?

उमड़ा जो नेह कलेजे में वह ज्योति अनन्य बने कैसे?

जलता नेही भुनगा आया, ठंढी बातों को सुलगाया ;

लौ में पड़कर दियरी दहकी, दृग-प्राण जले कैसे-कैसे !

लुटता आया शुचि नेह, मगर लौ में छल ही नयनीय हुआ !

1952

कवीन्‍द्र रवीन्‍द्र

तब आए थे तुम, हे उदार !

जब तुहिन घना था अम्बर में,

भय का था चोर घुसा घर में,

दिग्‍भ्रम के दृग सकुचे सर में ;

जग-जगड्‍वाल-- शैवाल-शोक के ओक उजागर करने को--

नयनों की जाली हरने को--

तुम आए थे,हे ऋषि उदार !

दिङ्‍मूढ़ विकल थे कोक दुखी,

भ्रमभीत मलिनमुख भानुमुखी ;

तम और तिमिर के पंख सुखी--

तब, पूर्व-प्रभा से पंकज में नववैभव के स्वर भरने को--

पंकज को शतदल करने को--

तुम आए थे, हे रवि उदार !

आलोक-क्रान्‍त के हे द्रष्‍टा,

सद्धर्म- क्रान्‍ति के हे स्रष्‍टा,

सांस्कृतिक सौध के हे त्वष्‍टा,

गोष्‍पद को गंगा बना, अमरता को चरणों से तरने को--

धूलों में सौरभ भरने को--

तुम आए थे, हे कवि उदार !

1952

महर्षि- दीप

दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये !

असत्यदृष्‍टि-दर्श दृप्‍त था दिगन्‍त में,

अहम्मतिप्रधान मान अन्‍त-अन्‍त में ;

कहीं न दृष्‍टि एक भी प्रकाश की किरण,

अदृष्‍ट-पंक में निमग्‍न थे नयन- नयन ;

विमान जाति का अनन्‍त ध्वान्‍त क्यों तरे?

कहाँ समान अवतरण? किधर गमन करे?

--कि गुर्जरी जमीन पर कहीं दिया दिखा ;

बढ़ा विमान ‘मूल’ की तरफ नजर किये।

दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये !

--कि मूल, जो विकस वटत्रयी सघन बना,

प्रकाण्ड-ज्ञान-शाख-संहिता-सहित तना,

उदग्र अग्रशिर, प्रसन्नता हरीतिमा,

स्वतन्‍त्र शक्‍त प्राण, घ्राण में पुनीतिमा,

कली-कली प्रकाश के विकास के नयन,

अपौरुषेय-ध्यान, पौरुषेय-मान-धन ;

प्रदीप थे महर्षि द्वीप-द्वीप के लिए।

दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये !

कि राम थे, व्रती बने वनान्‍त में अटे ;

कि कृष्‍ण थे, न क्रूर-खड्‍ग-भीति से कटे ;

कि बुद्ध थे, विरक्‍त फिरे लख स्वजन-निधन ;

कि ख्रीष्‍ट थे, दयार्द्र, हुए देख आर्त्‍त जन ;

कि एक-ईश-वाद-बन्‍धु-भाव के नबी ;

कि सिद्ध सन्‍त थे, कि भूति भक्‍ति से दबी ;

प्रताप जाति के, कि देश के महेश थे ;

अमृत दिया समाज को, गए गरल पिये।

दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये !

1952

बापू !

जब तक जग में थे, यम ने मात न मानी,

रज-तम ने सत्- क्षिति भी सिकता ही जानी ;

अब क्यों न भजे भव-गज, पद-रज ले सिर पर !

जब स्वयं ब्रह्‍मपद ने मिट्‍टी पहचानी !!

तुम आए, जीवन आया, मरु भी फूले ;

तुम कूके, लहलह हुए ठूँठ भी झूले ;

तुम उड़े, कि उघरा अन्‍त, रह गए टेसू !

अब जिधर देखिए, बालू और बगूले !!

जिस पद पर इनको छोड़ उड़े तुम ऊपर,

तुम छुटे, कि सब बेछूट आ रहे भू पर ;

ये पतित पत्र पहले पद तक तो पहुँचें !

हैं चले हिमाचल चढ़ने, चढ़कर लू पर !!

क्या कहा जाय अब हाल? नहीं तुम जब हो--

बारात तुम्हारी है, पर तुम भी गुम हो !

थे कभी फूल तुम इसी धूल-धरती के !

अब तो गिरिवर भी कहते, नीलकुसुम हो !!

बनिया बन तुम आए थे, सो हे ब्राह्‍मण !

बनिया ही बने रहे सत् के, आजीवन ;

हे कृपण ! एक भी पुण्य न छूटा तुमसे !--

तुम गए कि जग रह गया नितान्‍त अकिंचन !!

पिक-कूक कहाँ? हाँ, भय की भूँक बहुत है ;

मलयज है लूक, कि फण की फूँक बहुत है ;

आचरण वचन में, दर्शन बाने में--

साधना मूक है, मुँह में थूक बहुत है !

हो रहा जुए का नाल सत्य की पूँजी ;

तालोंवालों के हाथ, नीति की कूँजी ;

बगुलों के हक में मान ! हँस रोते हैं--

क्या खायँ, हाय ! घर में है भाँग न भूँजी !!

पानी भरते पण्डित, खण्डित चलने में ;

शकटासुर ताक रहे शिशु, को पलने में ;

बाहर के दृग भीतर क्या देखें, जिनको

पूर्वोदय दिखता है पश्‍चिम ढलने में !!

कुछ समझ नहीं आता है, क्या करना है,

किस ओर डगर है, किधर पाँव धरना है ;

अब भी तुमसे ही आशा है, हे स्वर्गत !

यह अन्‍धतमस भी तुमको ही हरना है !!

भारत-भव थे, अब तो स्वरीय हो, बापू !

महिमापति थे, अब अप्‍सरीय हो, बापू !

दो अमृत उसे भी, पर भू को पहले दो--

स्वर्गीय ! प्रथम तुम भारतीय हो, बापू !!

1952

हे तुलसी !

लगे जिसके, तुम हरि से लगे, मुझे भी वह ठोकर लगती !

शब्द का लगता ऐसा घाव,

टूट जाते तृष्णा के पाँव,

कुमति की गति होती लाचार,

हृदय हो जाता हरि का गाँव ;

मोह के झूठे बंधन तोड़, चेतना मुक्‍त हुई जगती !

कभी होता ऐसा संयोग

कि मैं भी पाता प्रीति-वियोग ;

रीति की यमुना हो कर पार,

धन्य होता मेरा भी योग ;

चितौनी ही ला देती चेत , चकित चितवन चित् से टँगती !

1953

मैं तो रस के बस था !

मैं तो रस के बस था !

तुम कहते हो, भावुकतावश, मैं बुद्धिहीन हो गया, मीत !

सच है, मैं तो रस के बस था !--

मैं छला गया , पर छल न सका,

जलकर भी लौ से टल न सका ;

जलना मेरी लाचारी थी,

ज्वाला ही मुझको प्यारी थी !--

क्या कहूँ कि उसमें क्या रस था !

जय तो मैं भी पा सकता था, पर मुझे मुझी ने लिया जीत !

प्रिय कहीं अंग, प्रिय कहीं आग !--

पाकर सनेह मन जलता है,

दीपक नेही को छलता है ;

कोई बरबस बस लुट जाता,

परवाना लौ से जुट जाता !

प्रिय कहीं रूप, प्रिय कहीं राग !

मेरी यह लय तो रक्षित है, सुर भले नहीं बन सके गीत !

1953

हे तीर्थङ्‍कर !

चहुँ ओर तिमिर जब तैर रहा, इस दुर्दिन में, नभ पर, भू पर,

तुम फिर उतरो, हे तीर्थङ्‍कर ! फिर देह धरो, हे ज्योतिर्धर !

जीवन की चन्‍दनबाड़ी में व्यालों का जोर बढ़ा देखो,

मानस की कुसुमित आँखों में रागों का शूल गड़ा देखो ;

हिंसालु घृणा-वन में दंशित जग के युग-होंठ हुए नीले,

दाँतों का जहर चढ़ा सिर पर , चित-खेत अचेत पड़ा देखो ;

दावानल बढ़ता आता है, इन्‍धन बनते जाते तरुवर !

लुकवारी भाँज रहे, लू बन, शीतल परिमल-तल भी तपकर।

विज्ञान- बलोन्‍मद निर्झरिणी शिखरों के शेखर ठुकराती

अज्ञान-धरातल पर उतरी, हरियाली पर आफत ढाती ;

कितनी ऋजुकूलाएँ डूबीं, कितने ही जृम्भिक ग्राम बहे--

किस महाप्रलय को लक्ष्य किये यह ध्वंसधुनी बढ़ती जाती?

प्लावित पीड़त संसार पुन: पथ जोह रहा, हे भूपकुँवर !

कब भागीरथी बनाते हो, धरकर तुम यह धारा दुर्धर !!

अब की दुर्गति अब क्या कहिए ! संयम सम छोड़ बना यम है,

दर्शन दिग्भ्रान्‍त प्रदर्शन में, प्रवचन में तर्कों का भ्रम है ;

गौओं पर दाँत लगा नाहर मौलिक अधिकार विचार रहे !

संचय तप का साफल्य बना ! ज्ञानी हैं वे जिनमें हम है !

स्वार्थ ही नीति, छल राजनीति, है प्रेय-प्राप्ति ही श्रेयस्कर ;

कृष्णा-भू टेर रही कब से, अब देर करो न, सुदर्शनकर !

1953

क्या पाप मेरा प्यार है, प्रिय !

प्रेम के वरदान का किसको यहाँ अधिकार है, प्रिय !

लालची अनुराग जिसका भोग में डूबा हुआ है,

तृप्ति को हो जो तृषाकुल, योग से ऊबा हुआ है,

ध्यान भी जिसका चपल छल-बंधनों की दीनता है,

क्या वही बड़भाग है जिसमें कि संयमहीनता है?

या, उसे अधिकार है, जो त्याग ही साकार है, प्रिय !

चुटकियाँ लेता जमाना, नाम सुनकर साधना का,

स्वार्थ ही जिसके लिए आधार है आराधना का,

वासना के ज्वार को जो प्यार दिल का मानता है,

देखता है चर्म-भर, पर मर्म कब पहचानता है !

रूप पर लुटते- लुटाते, क्या यही संसार है, प्रिय !

प्यार तो उसको सुलभ, जो वासना का है पुजारी,

दृष्‍टि भी दुर्लभ उसे, जो भाव का ही है भिखारी !

चार होते चक्षु जो करते सदा परिचार भ्रम का,

हारता वह मन, कि जो करता सदा परिहार तम का !

साधना की नि:स्वता का क्या यही प्रतिकार है, प्रिय !

सींचकर जिसको हृदय के रक्त से मैंने बढ़ाया ,

सब निछावर कर दिया जिस पर, यहाँ जो श्रेय पाया,

आज वह विश्‍वास का बिरवा भला क्यों डोलता है?

भीत मर्मर के विजन में कौन कातर बोलता है?

सच कहो, मेरी कसम, क्या पाप मेरा प्यार है, प्रिय !

मैं जगाऊँ साधना, आदेश यह मुझको मिला है,

कुछ न देखूँ , कब कहाँ काँटे चुभे या क्या छिला है,

घाव मेरे चाव हों, फूटें नहीं दिल के फफोले,

पग न डोलें भाव के, मन ऊबकर उफ भी न बोले !

पर तुम्हीं जो डिग पड़ो , तो और क्या आधार है प्रिय !

1938

मैं ही केवल दीवाना !

तुम लोग सभी ज्ञानी हो, बस , मैं ही केवल दीवाना !

जिसको मसान या कब्रगाह कहते, बस्ती है मेरी,

जो हैं उलूक के वास, खँडहरों में देता हूँ फेरी ;

हीरक, मूँगे, माणिक, मणियाँ, होंगी दुनिया की सम्पद्,

मेरी निधि तो बस है कंकड़-पत्थर, झिकटों की ढेरी;

दुनिया हँसती है--लुटा दिये मोती, कुछ मोल न जाना !

ये दीन-हीन भिखमंगे, जो मारे-मारे फिरते हैं,

अंधे, लूले-लँगड़े, ठोकर खाते, चलते गिरते हैं ;

सब देख घिनाते हैं जिनसे बचकर पथ पर चलते हैं,

मेरे कर बढ़ते उसी ओर, मन-नयन वहीं तिरते हैं ;

मैंने भी उन-सा ही ममतावश बना रखा है बाना !

ऊँचे टीले, नदियाँ, तालाब, पहाड़ों के प्रान्तर को,

मनमाना मैं छाना करता उर्वर-ऊसर भू-भर को ;

दूबों की सेज मुझे शासन-सिंहासन से बढ़कर है,

गढ़ और महल क्या पाएँ मेरे घास-फूस के घर को !

मैंने अपने आगे भूपों को भी दरिद्र ही माना !

सब लोग भोग से भूरि भरा करते भारी भण्डारा,

मैं हूँ, अपने घर में संचित करता केवल अंगारा !

पूँजीपति के उद्यान पटाता है गुलाब का पानी,

मेरी क्यारी को रोज सींचती है लोचनजलधारा !

मुझको कुबेर कहलाने से भाता दरिद्र कहलाना !

छ्प्पन प्रकार के व्यंजन की लालसा नहीं जगती है,

दो घड़ी मौज की खोज महज नटलीला-सी लगती है ;

आँसू उधार लेता, मोती के मोल चुकाया करता !

हर बार, सरल मेरी ममता को यह दुनिया ठगती है !

पागलपन तो देखो-- खोने में समझ रहा हूँ पाना !!

तुम लोग सभी ज्ञानी हो, रहने दो मुझको दीवाना !!

1939

इस जग में केवल जलना है !

मुझे प्रेम-पथ पर चलना है !

लेकिन प्रेम जिसे कहते हैं--

जिसके पीछे लोग न जाने

कितना क्या खो-धो देते हैं,

दाना से बनते दीवाने !--

आखिर है क्या? कौन बला है?

किससे और कहाँ मिलता है?

किस उपवन में, किस डाली पर

यह आकाशकुसुम खिलता है?

सचमुच, यह सब कुछ, कुछ है भी, या, केवल भ्रम है, छलना है !

किस कूचे की खाक न छानी,

कहाँ-कहाँ मैं नहीं गया रे !

बस, ठोकर ही मिली बिदाई,

हया गई, पाई न दया रे !

चटक-मटक थी छद्‍म-छ्टा की ,

यौवन की ढलती हाला थी !

खिल-खिल हँसती मस्त सुराही,

मस्त बनी साकीबाला थी !

देखा, लेकिन, चहल-पहल के इस जग में केवल जलना है !

क्षणिक छटा की छूट भले हो,

लेकिन इसमें सार नहीं है ;

दो घड़ियों का राग-रंग यह

एक नशा है, प्यार नहीं है ;

इस दुनिया के दीवानों का

दिल ही जब अविकार नहीं है,

हौंस-हिलोरों पर हिलते हैं--

यह तो शुद्ध दुलार नहीं है ;

मुझे नहीं जलना शलभों-सा, और , न मदिरा-सा ढलना है !

ओसों से क्या प्यास बुझाऊँ –

आँसू का निर्झर जब हारा !

टेसू से क्या बाग सजाऊँ—

‘अपत गुलाबी डार’ सहारा !

मिट्टी के क्या दीप जलाऊँ--

दिव्य दीप जब हार चुके हैं ;

साँझ-सबेरे, दोनों मेरे

पथ में रो बेजार चुके हैं !

भीतर ही भीतर मुझको तो काँच-आँच सहना, गलना है !

1939

यह भी तो न हुआ !

इतना भी तो तुम सह न सके, यह एक निशानी तो रह जाए !

नयनों का वह खेल, खेल में, जीवन का जंजाल हो गया !

तुम पत्थर ही रहे, और मेरा क्या से क्या हाल हो गया,

अब देखूँ, क्या चाव तुम्हारा-- यह सपनाघर भी ढह जाए?

आँखों को वह दान मिला, कि कलेजे का पाषाण बन गया !

अपना ही अरमान आज अपने मन का तूफान बन गया !

और, तुम्हारी चाह, आज यह पत्थर भी गलकर बह जाए !

लौटी उल्टे पाँव, मौत को भी मुझसे संकोच हो गया,

और, रह गई जान तड़पती हुई, कि तुमको सोच हो गया--

जीकर जो कुछ लह न सका, वह मरकर ही न कहीं लह जाए !

यह भी तो न हुआ, कि नयन से नयन आखिरी बार बोल लें,

दो-दो हृदय मिलें नयनों में, और हृदय की गाँठ खोल लें ;

जाती-जाती बेर किसी से कोई एक बात कह जाए !

शायद यही विधान, तुम्हारी करुणा का वरदान यही है,

प्रेम नहीं फल पाता ; लेकिन दुनिया का अरमान यही है--

एक निशानी तो रह जाए, एक कहानी तो रह जाए !

तुमसे तो यह भी न हुआ, यह एक निशानी तो रह जाए !!

1943

यह कैसा निर्माण?

यह कैसा निर्माण तुम्हारा?

जिस आधार शिला पर धरकर

आत्मा की पूजा के पत्थर

तुमने यह प्रसाद बनाया--

देख कला जिसकी, शरमायी असुरों और सुरों की माया ;

ढाह रहा है आज उसी को अग्निगर्भ अभिमान तुम्हारा !

श्रम के रजशेखर सिर दलकर

स्वेदशुद्ध शोणित से पलकर

तुमने चाही थी मांसलता ;

चाही थी अपनी अबाधगति, संसृति में सब ओर कुशलता ;

मुड़कर लेकिन आज तुम्हीं को बेध रहा है बाण तुम्हारा !

तुमने जड़ता को पनपाया,

फैलाई यन्‍त्रों की माया,

रौंदी नेहमयी मजदूरी ;

प्राणों से अनजान बना दी आत्मा के मंदिर की दूरी ;

बिहँस रहा है आज व्यंग्य बन तुम पर ही विज्ञान तुम्हारा !

बहुत हुई, अब तो तुम जागो,

मुग्ध स्वप्न की तन्‍द्रा त्यागो ;

जागो, जाग उठे भू-संस्कृति ;

जगें दीप्‍त दृग-दल दिग्-दिग् में, भर जाए उछाह की झंकृति !

मानव, कब से तड़प रहा है बन्‍धन में निर्वाण तुम्हारा !!

1943

बयालीस की दीवाली

देखा मैंने एक रात, सपने में कोई बोल रहा है,

घोल रहा है भाव गरल में, गाँठें दिल की खोल रहा है ;

धँसी आँख, गड्‍ढे कपोल में, वह कृशांग कंकाल-मात्र था ;

देखा मैंने, मेरे मन को वह अभाव से तोल रहा है !

लज्जा ढाँके हुए महज थी एक लँगोटी उसके तन पर,

मन के उसके भाव फलित हो आए थे उसके आनन पर,

बोला वह कंकाल-- हाय ! तुम कहते हो त्योहार मनाएँ?

रास रचाएँ उस जमीन पर, नाश जहाँ अंकित कण-कण पर?

विवश पराजय पर अपनी, निर्लज्ज गीत क्या गाना होगा?

उजड़ा चमन कागजी फूलों से क्या आज सजाना होगा?

जादू-सा फिर जाय, ज्योति से चकाचौंध आँखें हो जाएँ--

इसीलिए क्या दीप जलाएँ?

किन खुशियों के दीप जलाएँ?

यही, कि घर-घर में मातम है, हरेक दिल में एक दाग है,

अँधियारा आँखों में छाया, सीने में जलता चिराग है !

झोंपड़ियों का कौन ठिकाना, भवन ढूह के ढेर पड़े हैं,

जले किवाड़ और छप्पर की बुझ पाई अब तक न आग है ;

उजड़ गए अम्बार, भूसियों के अवशेष उदास पड़े हैं,

मवेशियों के नाद, बिना बन्‍धन के खूँटे जहाँ गड़े हैं,

कई शाम तक राख सर्द चूल्हों में किस्मत को रोती है,

और, कुर्क के लिए, द्वार पर लालभूत यमदूत खड़े हैं !

मानवता की नई राह जो नए विश्‍व ने दिखलाई है,

नए सभ्य-संगठन, शांति के लिए सीख जो सिखलाई है,

ये वरदान बड़े महँगे हैं, इनको जिसमें भूल न जाएँ--

इसीलिए क्या दीप जलाएँ?

अधिकारों की माँग करो, पर अधिकारों के लिए अड़ो मत

अधिकारी से अर्ज करो, पर अधिकारी से लड़ो मत ;

अधिकारी की राय न्याय है, और वही विधि का विधान है !

दुआ करो, जो कुछ मिल जाए, हाथ मगर उनका पकड़ो मत !

-- सदियों की यह सीख पुरानी, भूल चले थे हम दीवाने ;

छोड़ सनातनधर्म, चले थे नया-नया युग-धर्म बनाने ;

पर अपना कर्तव्यधर्म यह नई सभ्यता क्योंकर छोड़े?

नई रोशनी तो आई है मानवता को राह दिखाने !

उसकी ही करुणा तो है, जो यह विभूति हमने पाई है !--

दासधर्म सीखा है हमने स्वामिभक्‍ति यों अपनाई है !

भावी के इतिहास न ऐसे वर्तमान की याद भुलाएँ !!

इसीलिए क्या दीप जलाएँ?

1942

खामोश धुआँ

मेरा यह विश्‍वास किसी दिन इतिहासों की शान बनेगा !

धधक उठेगी ज्वाल, दबी है अभी जहाँ मन की चिनगारी,

ऊसर अभी जहाँ दिखता है, देखोगे कलियों की क्यारी ;

जहाँ अभी सर मार-मारकर लहरें लौट लुटी जाती हैं,

चट्‍टानों को चीर वहीं पर होगा कभी समुन्‍दर भारी ;

आहों का खामोश धुआँ यह, देखोगे, तूफान बनेगा !

नक्शा बदलेगा थल का, ऐसा एक ज्वार आएगा,

खेत-खेत में जीवन होगा, जीवन में विचार आएगा ;

अगतिशील सेवार न होंगे, प्रगतिशील लाचार न होंगे ;

उतर आसमाँ से धरती पर हँसता हुआ प्यार आएगा।

पत्थर का भगवान पिघलकर, देखोगे इन्सान बनेगा !

1944

हो गया असंभव भी संभव !

तुम किधर जा रहे हो, मानव !

तुमने ही कभी धरातल पर सपनों का स्वर्ग उतारा था,

चैतन्य कला के कौशल से जड़ता का रूप सँवारा था ;

तुम जिधर चले, खुल गया मार्ग, विघ्नों ने हाहाकर किया,

सिद्धियाँ हाथ जोड़े आईं, निधियों ने जय-जयकार किया ;

हो गए निहाल तुम्हें पाकर, अग-जग के योग-प्रयोग-विभव,

देवों ने फूके शंख और दिग्-दिग् में गूँज उठा वह रव--

जय हो, जय हो, जय हो, मानव !

हर ओर तुम्हारी चर्चा थी, हर ओर तुम्हारा ही कीर्तन ;

कोई भी ऐसी शक्‍ति न थी, जिस पर न तुम्हारा था शासन ;

सम्मान तुम्हारा किया, और हो गया स्वर्ग भी स्वयं धन्य ;

तुम लोक-लोक के रक्षक थे ; जग में था तुम-सा कौन अन्य?

तुम देते रहे विभूति, और पाता ही रहा भीख यह भव ;

बस, ध्यान तुम्हारा गया नहीं, हो गया असंभव भी संभव--

सुख-शांति-विधाता ओ मानव !

पर आज, तुम्हारे ही हाथों भू-स्वर्ग तुम्हारा उजड़ गया ;

पूजा था जिसे अमरता ने, वह स्तम्भ तुम्हारा उखड़ गया ;

सपने-सा टूट गया वह सुख, आदर्श तुम्हारा छूट गया ;

देवता तुम्हारे लुटे ; पुण्य को पाप तुम्हारा लूट गया !

हर ओर आह का दाह ; चाह की राह रुद्ध ; घायल अवयव ;

दारिद्र्य नग्न ; शनि-चक्र-लग्न ; अट्‍टाट्‍टहास करता कैतव - -

तक्षक- महिमाधर , ओ मानव !

1944

राष्‍ट्रपिता

तुम न रहे, संसार अँधेरा !

उगते-उगते डूब गया दिन,

तुम थे जिसका अरुण सवेरा !

धरती के युग-युग के तप ने

पा कर तुमको स्वर-वर-सा अपने,

आँखों में आँके जो सपने--

श्रुति के गीत बने द्युति-खग वे,

छोड़ गए जग-- रैन-बसेरा !

धन्य धरा नव-राग सरस से--

शत-शत शतकल खोल दरस के--

पुलक रही थी, पुलक-परस से ;

पर, सहसा, सुख के सरवर पर

डाल दिया दुर्दिन ने डेरा !

अघहारी, ‘नवजीवन’-दाता !

कोटि-कोटि प्राणों के त्राता !

अभिनव-भारत-भाग्य विधाता !

तप के तपन ! तपो उर-नभ में,

रह न जाय किल्विष का फेरा।

1951

क्यों दिया यह दान?

कविहृदय का दान--

दाता ! क्यों दिया यह दान?

देकर मृत्‍तिका की देह--

सौ-सौ आँसुओं का गेह--

कहते हो, न भींगूँ ; किन्तु,

छवि के चतुर्दिंङ्-मेह !

मैं कैसे करूँ परित्राण?

तुमने क्या दिये सामान,

जिनसे बच सकें मन-प्राण?

पाया, बस, हृदय का दान तुमसे-- कविहृदय का दान !

कण-कण में कि जिसका वास,

मन-मन में कि जिसका हास,

ध्वनि-ध्वनि में कि जिसका ध्वान,

गति-गति में कि जिसका लास--

माया, अनथ-अनिति वितान,

भव का राग, लय की तान-

किसका है विनोद-विधान?

तिस पर यह हृदय का दान मुझको-- कविहृदय का दान !

थल-थल निहित दलदल घोर,

ओर न छोर, तिमिर अथोर ;

संबलहीन, दुर्बल, दीन,

मैं बढ़ता, कहो, किस ओर?

इतना भी न रक्खा ध्यान,

कैसे जायगा, अनजान,

बे-पहचान, पथिक अजान !

तिस पर यह हृदय का दान, भावुक कविहृदय का दान !

मुझ पर भ्रांति का आरोप,

पर अपना न देखा कोप?

कहते हो कि खोलो आँख,

करके आँख ही का लोप ;

भ्रम में क्यों न पड़ते प्राण?

पाकर भ्रम-भरा यह ज्ञान,

भ्रम के ज्ञान का अभिमान !

उस पर कवि- हृदय का दान ! दाता ! क्यों दिया यह दान !!

1935

दो दिन का साथ

दो दिन का साथ रहा तुमसे, दो दिन कुसुमों की बात रही ;

फिर तो काँटों की बन आई, सब दिन दुर्दिन की घात रही !

तप क्या आया, मुझ-से कितने

जीवनदानी बेहाल बने ;

मलयज को लूक लगी, झुलसी,

चन्‍दन के बन बनज्वाल बने ;

अलसाये दिन में भी सपने

आँखों की नींद चुरा भागे ;

ऊमस की आई रात, रात-भर

प्राण बने प्रहरी जागे ;

तुमसे बिछ्ड़ी हर-एक घड़ी मुझको मरघट की रात रही !

अम्बर पर नाग उतर आए,

कच्चे घर की छत पर ठनके ;

पावस की पहली बूँद गिरी,

कुछ अश्रु तवे तन पर छनके ;

बिजली ने रह-रहकर बरजा,

स्वाती की छाती बैठ गई ;

पी-पी रटती प्यासी रसना

तालू से लगकर ऐंठ गई ;

मेरी आँखों नभ ने देखा-- जल में जलती बरसात रही !

नभ का जब दानोन्‍माद गया ,

मिट्‍टी के उन्‍मद राग धुले ;

हिम से तब आग लगाने को

शारदम्बर पर शीतांशु खुले ;

हर ओर चकोर लगे चुगने

मेरी चाहों के अंगारे ;

मेरे उल्लास लिये, नभ तक,

बेचारे सिंधु उठे, हारे ;

तुमको दृग-पथ पर घेर , सजल सजती भर-रात बरात रही !

1953

कौन-से ये मेघ छाए?

कौन-से ये मेघ छाए?

नींद के माते हुए-से, स्वप्न से शशि के जगाए !!

अश्रु किसकी याद के ये किन बरुनियों से टँगे हैं?

सुख-दुखों के दाग, धूमिल चित्र, अम्बर पर रँगे हैं ;

कौन-- किसकी चाह-- किसकी राह पर आँखें बिछाए?

आह के हलके परों पर दाह का अरमान ढोते,

पुतलियों में प्राण, लौ के प्यार के सपने सँजोते ;

ये चले किस दर्द की तस्वीर- सी दिल में बसाए?

स्वर-सुरभि से किस भ्रमर की, मन-सुमन ये खिल रहे हैं?

मिल रहे हैं भाव-से, या, घाव दिल के सिल रहे हैं?

मौन को ये कौन अपनी ज्योति से हैं जगमगाए?

हूक हैं उस कू-कुहू की, मूक जो रटके हुई है?

या शलभ की साँस है, जो दीप के दिल की सुई है?

त्याग यह किसका, निराली वासना मन में छिपाए?

ये विरह-संदेश किस गिरि से किधर को जा रहे हैं?

कौन, किसकी चेतना को, फिर ‘धवल’ ढो ला रहे हैं?

किस कन्हैया की तरफ किस राधिका के श्‍वास धाए?

‘पी कहाँ?’-- रटता पपीहा, चुग रही चिनगी चकोरी ;

पी कहाँ?-- चकई विकल है, चीखती पगली मयूरी ;

पूछता कण-कण प्रकृति का-- पी कहाँ? कोई बताए।

नीलसागर में उठे क्या फेन, जो तिरते चले हैं?

या नए नल-दूत हैं, जो शून्य-मानस में पले हैं?

कल्पना के पोत किस कवि-बाल ने जल में बहाए?

हे गगनचारी, रुको, उतरो, तनिक विश्राम कर लो ;

ध्वंस के अपने स्वरों में ‘रुद्र’ का शिवराग भर लो,

तुम बनो आनन्‍द जीवन, विश्‍वकानन मुसकराए !

चित्रकर हे मेघ छाए !!

1941

मीड़

रचनाओं के शीर्षकों की सूची :

1

तू मुझको यदि पद-गति देगा

2

ज्योति-करों से स्पर्श करो हे

3

जितने भी गीत सिखाने हों

4

मेरे गीतों को , कुहुकिनी !

5

मन कितना आतुर है

6

मुझे विजित ही करके

7

चरण-शरणगत घुंघरु अनाहत

8

एक अकेला दीपक मेरा

9

आज तुम्हारी स्नेहल सुध भर

10

मैं हूँ बीच भँवर में

11

नाविक मेरे

12

यह एक बूँद सागर बन जाएगी

13

यह तट अब छोड़

14

सावन के भावन मेह

15

सपनों के दृग ! मत नाच

16

गगन चढ़े ये क्या फिर आए?

17

जलती हुई दुपहरी

18

रोज, शाम को

19

यह रात नहीं ही रीते

20

चाँद ढलता जा रहा है

21

उनसे कहने की बात

22

यह घुटन, यह मौन

23

बात किससे करूँ

24

अब शायद कोई फरियाद

25

मेले में बिछड़ा बालक हूँ

26

तबीयत ही नहीं लग पा रही

27

वह दिन भी आएगा जरूर

28

ऐसे ताक रहे हो

29

मुड़कर, अब अपने को देखो

30

जब तक मेरी तुम्हें जरूरत

31

तुम कोई सपने की बात नहीं हो !

32

तुम भी मीठा ही पाओगे

33

तुम दुहरे टूट रहे

34

मैं माँगूँ, तब तुम मिलो

35

मैं तुम्हें पचा लूँ

36

मैं तुमसे क्या बात कहूँ

37

मैं ही नहीं समझ पाता हूँ

38

मैं दिल को दुहरा भार नहीं दूँगा

39

तुम एक बार फिर

40

इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो !

41

प्रिय यह प्राणों की मालिन

42

तुम नहीं होगे जहाँ

43

दिशि-दिशि घन अंधकार

44

बंधु ! जरूरी है

45

जाहिर है, तुम कल रात

46

कब तक यह आँखमिचौनी रे !

47

जागो जगत्प्राण

48

चौराहे तक लाए

49

मेरे श्रम का मोल , तुम्हीं बतलाओ

50

दर्शन के प्रतिहार

51

जब-जब तुम आते हो

52

उड़ा-उड़ा मन

53

कितना मीठा है

54

मुझे टूट जाने से

55

मैं क्या चाहूँ?

 

 

रचनाएँ

1.

तू मुझको यदि पद-गति देगा, तो अपने ही बोल सुनेगा !

चरण-बँधे स्वर, मधुप-कुलक-से,

गूँज उठेंगे परस-पुलक से ;

सागर देगा ताल इधर तो चाँद उधर हिंडोल सुनेगा !

बंधन का मन जब चिर-गोपन

ध्वनित करेगाआत्म-निवेदन

धरती रुककर, अम्बर झुककर वह शिंजन अनमोल सुनेगा !

जड़ता को यदि मुखर करेगा

तो तेरा ही मन उघरेगा ;

अपना ही गुण सगुण पदों में तू मुझसे बेबोल सुनेगा !!

1956

2.

ज्योति-करों से स्पर्श करो हे, काँपें तम के तार !

नीलकुसुम जो कुम्हलाए हैं,

धूल धुलाने ढुल आए हैं ;

चरणोदक भर दो इनमें तो अर्घ्य करे संसार !

पाँखों में बन्‍दी भ्रम का मन

खोले आँख, खिले दर्शन बन ;

किरणों पर कलियाँ बलि जाएँ, कलियों पर गुंजार !

फूटे मन के अस्फुट व्यंजन

कुछ मुँह में, कुछ लोचन के धन--

तुम स्वर से बाँधो तो ये भी पा जाएँ आधार !!

1954

3.

जितने भी गीत सिखाने हों, जल्दी ही जरा सिखा दो !!

कुछ ठीक नहीं, कब चल दूँ मैं, अब ऐसा ही लगता है,

ये गीत सुनाने हैं जिसको, शायद अब तक जगता है !

जो भी सन्‍देश लिखाने हों, जल्दी ही जरा लिखा दो !!

यह रूप-रंग का धाम तुम्हारा ऐसा चित्रालय है

सब देख सकूँ सब आँक सकूँ, उफ ! इतना कहाँ समय है !

अब जो भी चित्र दिखाने हों, जल्दी ही जरा दिखा दो !!

1955

4.

मेरे गीतों को, कुहुकिनी ! मत गाना !!

इनमें हाला है, सुधा-सी जो लगती,

ऐसी ज्वाला है, जलधि में जो जगती,

इन चिर-रीतों को अधर से न लगाना !

मुँह लगते ये स्वर गले पड़ जाते हैं,

चरणों के ये बोल सिर चढ़ जाते हैं ;

दिल पर बीतों को जुबाँ पर मत लाना !!

इनका अपना क्या, पराया भी क्या है !

यों ही सपना था, गँवाया ही क्या है !

निर्मम प्रीतों को भुलाते ही जाना !!

1956

5.

मन कितना आतुर है कुछ गाने को !

लगता है, मेरा प्रिय है आने को !!

हो रहा गला गीला, आँखें छलछल ;

पदचाप किसी की सुन पड़ती पल-पल ;

बेसुध प्राणों के तार तड़प उठते ;

सुध मचली है कजली बन जान को !

अभिषेक-सलिल-पूरित कलसोंवाले,

छिवछत्र-चँवरधारी, जलधर काले

आ रहे पवन के संग, सने श्रम से,

बारात उसी की द्वार लगाने को !!

1955

6.

मुझे विजित ही करके क्या तुम जीत बनोगे?

लाज बनी रहने दो ! मुझे प्रलोभन मत दो !!

इनके लिए मुझे मन मत दो ! लोचन मत दो !

नहीं चाहिए दृष्‍टि तुम्हारी, इन जालों से--

नहीं चाहिए ! नहीं चाहिए !! यह धन मत दो !!!

मुझे घृणित ही करके क्या तुम प्रीत बनोगे?

पथ चलता जाता है, पंथी ही अविचल है ;

गगन बदलता जाता, बादल ही अविकल है ;

गरल पिये जल जलता, ज्वाला प्यास बुझाती,

परिमल का पहरा है, बन्‍दी बना कमल है ;

मुझे रुदित ही करके क्या तुम गीत बनोगे?

1955

7.

चरण-शरणगत घुँघरु अनाहत, थिर जमुना का नीर है !

अग-जग के दृग वेणु-चकित मृग,

कलरव का मन आकुल दिग्-दिग्,

जलज-सलज-मुख ललस रहा-सा चाँद गगन के तीर है !

यह रजनीमुख, जिसमें सुख-दुख,

अपना-अपना देख रहे मुख,

कैसे खोले आँख गगन में, छाई धूल-अबीर है !

नाचो मोहन ! मदन-विमोहन !

विमद करो मत यह पद-बन्‍धन ;

चपल चरण ही बतलाएँगे, नूपुर की क्या पीर है !!

1956

8.

एक अकेला दीपक मेरा सौ-सौ दाहों जलता है।

आँखों में हिमहास उगाए,

मन में जलती प्यास जुगाए,

तारों-सा मेरा दीपक भी सौ-सौ चाहों से बलता है !

सावन-धार, शरद्‍-उजियारी,

हरसिंगार या हिम की क्यारी--

मेरे मन का मोम पिघलकर सौ-सौ साँचों में ढलता है !

जीवन के सपने उधियाते

राखों पर लौ धरने आते,

बुझता-सा विश्‍वास सुलगकर ठंडी साँसों को छलता है !!

1954

9.

आज तुम्हारी स्नेहल सुध भर मैं भी दीपक बाल रहा हूँ !

जग ने जो दी है अँधियारी,

कैसे हो जाए उजियारी ! --

छाती में छवि की बाती धर नेह-नयन भर ढाल रहा हूँ !

मैं जो अपने से ऊबा हूँ,

घबराकर तुममें डूबा हूँ ;

मत पूछो, इस अपनेपन से मैं कितना बेहाल रहा हूँ !

सोने की यह रेख दिये की

जाहिर मेरी देख, हिये की,

फिर भी, जग क्या जान सकेगा, मैं दिल में क्या पाल रहा हूँ !

1954

10.

मैं हूँ बीच भँवर में, कोई तट पर जोह रहा है !

कैसे ऐसे प्रीति निबाहूँ,

कहूँ-- कहाँ, कैसे हूँ, क्या हूँ !

छूटे हुए तीर को मुझसे कितना छोह रहा है !

भरा हुआ ही डूब रहा हूँ,

पर अभाव से ऊब रहा हूँ,

तट का मोह छूट कर भी इस घट को मोह रहा है !

लहरो ! तुम्हीं उसे समझाओ,

तट पर लिखकर भेद बताओ,

यह सागर-अवरोह वही, जो गिरि-आरोह रहा है !!

1956

11.

नाविक मेरे, तू मत खे रे !

बहने दे उन्‍मन, तिनके-सा

धार जिधर ले जाय तरी को ;

तिरने दे दुखनीलसलिल में

हिमताड़ित सरसिज-सफरी को ;

तू मत धर पतवार, मुझे ही धरने दे कुछ सपने मेरे !

घिरती आती रात, क्षितिज पर

स्याही-सी छाती जाती है ;

घायल तट की घात उलटकर

धारा को डसने आती है ;

यह न गरल-संचार, यही है मीरा का अभिसार, चितेरे !

डाँड़ धरूँ क्या, थाहूँ भी क्या,

मन ही जब न कहीं लगने का !

धुँधला कोई कूल कहीं पर,

चारा है मन को ठगने का !

रहने दे मँझधार, यहीं यह नाव लगेगी पार, सवेरे !!

1954

12.

यह एक बूँद सागर बन जाएगी- -

जलधर को भी ऐसा विश्‍वास न था !!

दुर्दिन में ऐसी रात कहाँ होगी?--

अंगारों की बरसात कहाँ होगी !

तुमसे भी थी उम्मीद यही, मुझको--

हँस दोगे, मेरी बात जहाँ होगी !

पर शिला स्वयं निर्झर बन जाएगी--

भूधर को भी ऐसा एहसास न था !!

आने ही वाले थे फूलों के दिन,

आ गए लूक बनकर धूलों के दिन ;

चीखता रहा पंछी कि उसाँसों से

शायद कुछ नम हो जाय हवा, लेकिन--

बन की पुकार ही घन बन जाएगी,

अम्बर को भी ऐसा आभास न था !!

1955

13.

यह तट अब छोड़, हठीले, मन के माँझी !!

लहरों का लोल निमंत्रण

कब से मग जोह रहा है,

इस ठौर गिरा लंगर ही

अब तुझको मोह रहा है ;

बालू मत सींच, पनीले, मन के माँझी !

पहचान भरम आँखों का,

यह सिंधु सुनील नहीं है ;

रम जाय कहीं पथ में ही,

पंथी का शील नहीं है ;

झूठी यह लाज, लजीले, मन के माँझी !

इस मुग्ध उपासन से क्या?

यह कैसी तत्परता है !--

रत्‍नाकरगम्य तरी में

तट की सीपी भरता है !

अब तो पथ चेत, नशीले, मन के माँझी !!

1957

14.

सावन के भावन मेह आके झाँक जाते हैं !!

अहियों के विष का जोर है,

चन्‍दन के बन में आग ;

अंगारी लू सब ओर है,

सूखे मकरन्‍द-पराग ;

बिजली से यह तस्वीर बादल आँक जाते हैं !

असमय आई पतझार है,

हरियाली है झंखाड़ ;

पी-पी की करुण पुकार है,

बन-बन के अंग उघार ;

धरती की नंगी लाज बादल ढाँक जाते हैं !

छालों से छापा गात है,

नयनों में जलती प्यास ;

अन्‍तर में कोई बात है- -

स्वाती के घन की आस ;

पपिही के दिल के घाव बादल टाँक जाते हैं !!

1955

15.

सपनों के दृग ! मत नाच, शिशिर-बन में,

पावस के घन बरबस घिर आएँगे !

मैं तो तुझमें ही था, पर तूने ही

मुझको छलकाकर सागर कर डाला !

सीपी तक से थी भेंट नहीं जिसकी,

उसको तूने रत्‍नाकर कर डाला !

तू डूबेगा मेरे नीलेपन में--

तो लहरों पर मोती तिर आएँगे !!

एक ही राग तूने मुझ पर साधा,

जो आग लगा देता है पानी में !

पर यह सुर भी मुझमें ही डूबा था,

जो आज विकल है मेरी वाणी में !

मत छेड़ मुझे, वरना जो सावन में

घर लौट गए थे, फिर फिर आएँगे !!

कूलों से बहते आए जीवन को

तूने अकूलता देकर बाँध लिया !

चुप रहूँ आज भी क्या? जैसे उस दिन

बेदम होकर मैं दम साध लिया !

उमड़ेगा तू कूलों के निर्जन में,

अपजस नाहक मेरे सिर आएँगे !!

1956

16.

गगन चढ़े ये क्या फिर आए?

मोर, नाच मत फूला-फूला !

चातक-सा क्या तू भी भूला?

ये तो मधु के गंधविकल स्वर,

बौरों पर जो थे बौराए !!

परिचित प्रिय के वेश नहीं ये,

प्रियतम के सन्‍देश नहीं ये ;

दृग-छल को ही सजल बनाकर

मरु-मृग ने हैं प्राण जुड़ाए !!

मावसपीड़ित सिन्‍धु-चकोरे

पावस-पट में आग बटोरे

हार पिरोते हूक रहे हैं,

प्रिय के पथ पर नयन बिछाए !!

1955

17.

जलती हुई दुपहरी की रेती पर

एक बार तुम रोज छाँव बन छा जाओ !

फूल, तुम्हें पाकर जो खिल जाते हैं,

खिलने पर तुमको ही मिल जाते हैं !

खिलने के पहले तक ही पाना है ;

खिलकर तो तुममें ही खो जाना है !

इसीलिए अनुनय कि रोज तुम आकर

एक बार पुलिनों के फूल खिला जाओ !!

आओगे तो अपनी ही इच्छा से ;

दीखेगा, तुम मिले मुझे भिक्षा से !

प्राण-पिपासा तर्पण बन जाएगी ;

जीवन-लिप्सा अर्पण बन जाएगी ;

यह पुकार मेरी ऊँची कहलाए- -

एक बार तुम रोज़ उतरकर आ जाओ !!

1955

18.

रोज, शाम को, मन थकान से भर जाता है !!

बस, मरु ही मरु, आँख जहाँ तक जाए ;

कोई छाँव नहीं कि जहाँ सुस्ताए ;

उड़ता ही रह जाता है जो पंछी,

क्या लेकर अपने खोते में आए !

रोज, शाम को, मन उफान से भर जाता है !!

रोज-रोज एक ही बात होती है--

रोज, पाँख से आँख मात होती है !

लेकिन, इतनी दूर निकल जाता हूँ--

आते-आते साँझ रात होती है !

रोज, शाम को, मन उड़ान से भर जाता है !!

1955

19.

यह रात नहीं ही रीते , तो कितना अच्छा !

जिसमें पाकर बिन्‍दुल बंधन,

दृग से छूटा मेरा मृग-मन

बन आता है घन की चितवन--

बरसात नहीं ही बीते, तो कितना अच्छा !

जिसमें तारे मेरे मन के

ढुल आते हैं नभ से छनके,

उस हिमनिशि को, चित्रक बनके,

मधुप्रात नहीं ही चीते, तो कितना अच्छा !

जीते खुलकर जो दुख जी में,

हारे बँधकर तो सुख ही में ;

पाँखों की आँखमिचौनी में

जलजात नहीं ही जीते, तो कितना अच्छा !!

1955

20.

चाँद ढलता जा रहा है !

रश्मियों के मूर्त स्वर पर

मुग्ध हैं मृग-दृग-कुमुद-सर ;

शशिप्रभा की मूर्च्छना से नभ पिघलता जा रहा है !

पालती बाती हिये में

साधना जलती दिये में ;

वेदना की वेदिका पर मोम गलता जा रहा है !

स्वप्न घुल-घुल ढुल रहा है,

सत्य धुल-धुल खुल रहा है ;

दीप बुझता जा रहा है, घर उजलता जा रहा है !!

1954

21.

उनसे कहने की बात कही न गई ;

हिम में आई बरसात सही न गई !

होंठों ने हिल-हिलके कोशिश तो की ;

पर, मुँह तक आई बात कही न गई !

फूलों के दिन तो पलकों झेल गया ;

पर, आँखों-फूली रात सही न गई !

क्या बात नहीं बदली, न गई दिल से?

बेसुध रहने की बात, यही न गई !!

1955

22.

यह घुटन, यह मौन-- ऐसी साधना किसके लिए है?

महल के फानूस में मधुदीप जो जलता रहा है,

आप अपनी दीनता पर पिघलता-गलता जा रहा है--

आवरण तक ही शलभ का भी जहाँ अभिसार होता--

ज्योति-छल से जो तिमिर के सत्य को छलता रहा है !

पूछती है रात-- यह आराधना किसके लिए है?

भाग्य ने जिसको दिया है स्वर्णपिंजर में बसेरा,

चाँदनी से ही जहाँ रहता नयनपथ में अँधेरा ;

चाँद भी अंगार होकर जहाँ जुड़ता-जुड़ाता,

और, कुहरा ही भरे रहताजहाँ, सब दिन, सबेरा !

पूछता है व्योम-- यह टक बाँधना किसके लिए है?

1955

23.

बात किससे करूँ, पास हो भी कोई,

कौन टोके मुझे, फिर कहाँ खो गए?

पास थे एक दिन, और तब क्या रहे !

दूर होके तुम्हीं आज क्या हो गए !

रात झपके नहीं, गंध के बंध में,

दल उघरने लगे, तब कहाँ सो गए?

धूल पर ओस ने जो लिखी थी कथा,

वह कथा तो कथा, धूल तक धो गए !!

1956

24.

अब शायद कोई फरियाद नहीं है !

एक समय था, याद बहुत आती थी,

अब उसकी भी राह रुकी लगती है ;

बाहर की अँधियारी हँस जाती है--

दीपित थी जो चाह, चुकी लगती है !

लगता है, यह घर आबाद नहीं है !

‘टिकना मुश्किल है’कहकर जिस घर को

छोड़ दिया, उसमें अब क्यों ठहरोगे !

लेकिन, गुजरोगे जब कभी इधर से,

तो मेरी हालत पर तुम्हीं कहोगे--

अचरज है, कुछ भी बरबाद नहीं है !

पर, ज्यों ही चौखट पर पाँव धरोगे,

पहरे पर की छाँव पाँव धर लेगी !

पहचानेगा कौन तुम्हें, सूरत से?

पूछोगे तो खुद सुध ही कह देगी--

‘क्या जानूँ, अब कुछ भी याद नहीं है !’

1956

25.

मेले में बिछड़ा बालक हूँ, बिसरा मेरा ज्ञान !--

भूला-भूला मेरा ज्ञान !!

कुछ ऐसा ही भूल गया है मुझको मेरा मन ;

लाख पूछते लोग, एक ही उत्‍तर है-- रोदन !

यहाँ तमाशे में आया था, बना तमाशा हूँ !

भाप जहाँ भाषा, मैं उस करुणा की भाषा हूँ !

लोगों को हैरानी है ! - मैं आप यहाँ हैरान !!

मुमकिन है, मेरी भी होती होगी खोज कहीं !

वरना कोई हाथ बिठा जाता क्यों रोज, यहीं?

मुझे यहाँ यों छोड़ गया है कौन, कौन जाने !

मेले में तो होता ही है ! बुरा कौन माने !

मुझको भी सब समझ रहे हैं मेले का सामान !!

1955

26.

तबीयत ही नहीं लग पा रही है--

बहुत भींगी हुई है !!

बड़ी लौ से रही लगती जिगर की चाह, दिल से ;

सिराकर रह गया, लिपटा प्रलय का दाह दिल से ;

तरलता में तड़ित् के प्राण यों डूबे हुए हैं--

कि स्वर के कूल तक खिंच ही न पाई आह दिल से ;

पलक से सुध नहीं टँग पा रही है--

बहुत भींगी हुई है !!

नयन की रंगशाला में नजर की तूलिका ने

बरुनियों से टँगे परदे रँगे कितने, न जाने !

पुतलियों पर लहू का रंग ही चढ़ता नहीं अब--

कुहुकिनी रात को दूँ किस तरह रतनार बाने?

कि तूली ही नहीं रँग पा रही है--

बहुत भींगी हुई है !!

1955

27.

वह दिन भी आएगा जरूर-- मन ! हार न रे !

दुर्दिन में ऐसी हलचल तो होती ही है,

दुश्शासन-धृत द्रौपदी-शान्‍ति रोती ही है ;

अन्नमय कोश ही जब तक सब कुछ रहता है,

सौन्‍दर्य-सत्य का साधक सब कुछ सहता है ;

इसलिए, टूटकर हो न चूर-- मन, हार न रे !

माना, आगे हैं प्राण-मनोविज्ञान-कोश--

लम्बी यात्रा है-- फिर भी, अपना सही होश,

आन‍न्द-लाभ तक, मनुज नहीं खो सकता है ;

धावे में बेसुध नींद नहीं सो सकता है ;

वह आसमान भी नहीं दूर-- मन, हार न रे !!

1955

28.

ऐसे ताक रहे हो, जैसे, हो कब की पहचान !

तुमसे मेरी ममता ही क्या, तुमसे कब का भाव?

कहाँ लहर पर चढ़ी चाँदनी, कहाँ भँवर में नाव !

फिर, ऐसे भीने बाणों से क्यों मेरा संधान?

व्यर्थ बहा दोगे पानी में यदि इतना पीयूष,

तो हिम से जमकर सावन भी हो जाएगा पूस ;

मेरी हैरानी कर देगी तुमको भी हैरान !

कितना अच्छा था तटस्थ ही ; तुमसे परिचयहीन,

तुम अपना गाते, मैं अपनी अलग बजाता बीन ;

कहाँ खींच लाए तुम तट से, लहरों के अरमान !

1956

29.

मुड़कर, अब अपने को देखो और मुझे !!

कहाँ छोड़ आए थे अथ में !

चढ़ भागे सोने के रथ में !

सो मैं लेकर हार खड़ा हूँ--

आज तुम्हारे स्वागत-पथ में !

अब अपने सपने को देखो और मुझे !!

तब तो तुमने बिहँस दिया था--

प्रथम-प्रथम जब दरस दिया था !

खनिज-मलिन मेरी माटी का

पावक ने जब परस किया था !

अब मेरे तपने को देखो और मुझे !!

1955

30.

जब तक मेरी तुम्हें जरूरत होगी--

तब तक मैं ही तुम हो जाऊँगा !

गुल खिलनेवाले मौसम में तुम आए थे,

मन की मधुर व्यथा बन काँटों में छाए थे ;

पिऊँ-पिऊँ जब तक मैं सौरभ की प्याली से,

तुम्हीं तोड़ भी गए, जिसे तुम भर लाए थे !

अब, जब तक फिर जाम भरोगे, तब तक

मैं ही मदिर कुसुम हो जाऊँगा !!

इसी कुंज में भरम रहा हूँ मैं भरमाया,

जबसे उढ़ा-उतार गए तुम दृग की माया !

टूटे स्वर टूटे काँटों में अँटक रहे हैं--

पता तुम्हें ही नहीं, यहाँ किसने क्या गाया !

पता लगाने जब तक तुम आओगे,

तब तक मैं ही गुम हो जाऊँगा !!!

1955

31.

तुम कोई सपने की बात नहीं हो !!

वैसे तो, जैसे भी छवि दिखलाओ,

आँखों में फूलो, सिंगार बन जाओ ;

सपना भी तुमसे सच हो जाता है--

मुझसे इसको सपना मत कहलाओ !

तुम तारों की सूनी रात नहीं हो !!

ओ स्वरकार ! मुझे भी स्वर दो, गाओ ;

मेरी रचना को निष्फल न बनाओ !

तुम न रखोगे सुध, तो कौन रखेगा?

एक बार यह टेक रोज दुहराओ !

विजय-वरण मेरे ! तुम मात नहीं हो !!

1955

32.

तुम भी मीठा ही पाओगे, जीवन जो मुझको प्यारा है !

कबसे घट में भर रखा है,

एक बार भी कभी चखा है?

लोने हो जाएँगे प्याले ! -- क्या यह जल इतना खारा है?

कैसे कह दूँ, पंक नहीं है,

इसमें एक कलंक नहीं है,

किन्‍तु यहाँ खिलकर तो देखो, यह सरवर सबसे न्यारा है !

अम्बर में तो खिलते ही हो,

सागर से भी मिलते ही हो,

बाँधूँ तुमको मैं किस गुण से, चपल नहीं मेरी धारा है !!

1956

33.

तुम दुहरे टूट रहे, साथी !

पाँखों की चाह मचलती है,

तलछट में बाती जलती है ;

मावस की रात दहलती है !

हमदर्द निगाहों को भी तब, मुस्कान तुम्हारी छलती है ;

अपनों से क्या, सपनों से क्या, तुम खुद से छूट रहे, साथी !

यह किसने किसको जीता है?

पनघट पर भी घट रीता है ;

मधु भी माहुर-सा तीता है ;

अपनी न सही, पर मेरी तो देखो, मुझ पर क्या बीता है !

यह किस अपने को भरने को, अपना घर लूट रहे, साथी?

1955

34.

मैं माँगूँ, तब तुम मिलो और क्षण मिले--

तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है !

यह तुम भी कह दो तो मैं कैसे मानूँ?

स्वेच्छित खिलने में तुमको अक्षम जानूँ?

मेरी चितवन पर तुम तो बनो न ऐसे--

देखा ही कहीं नहीं हो मुझको, जैसे !

मँडराऊँ, तब तुम खिलो और मन खिले--

तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है !

दम साधे तुमको जगा रहा अपने में !

तुम बेसुध हो स्वर्णोदय के सपने में !!

छेड़े अब तुमको भले किरन ही चंचल !

भर पाएँगे, बिन खुले, अलस मेरे दल !!

गुंजारूँ, तब तुम हिलो और बन हिले--

तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है !

1955

35.

मैं तुम्हें पचा लूँ अपने में, कुछ ऐसे !--

जैसे रचते हैं फूल, गोदकर गात ;

सिल बनती बुत, सहकर छेनी के घात ;

बुलबुल के गुँथे कलेजे का अनुराग

रच देता है टहटह गुलाब के पात ;

मैं तुम्हें रचा लूँ अपने में कुछ ऐसे !

बादल के पत्‍तों में बिजली की आँच ;

दीपित हो जैसे शीशमहल का काँच ;

लहरों में झंकृत पूनों का संगीत ;

दीया बुझने के पहले, लौ का नाच ;

मैं तुम्हें नचा लूँ अपने में कुछ ऐसे !

1955

36.

मैं तुमसे क्या बात कहूँ, क्या बात नहीं !!

दिन-भर तो रहता है मेला,

हाट-बाट का झूठ-झमेला ;

पर जब नभ सजने लगता है,

मेरा मन बजने लगता है,

तुम आँखें भर जाते हो, किस रात नहीं !!

तुमने समझा-- वर्षा बीती,

होगी सावन-सरिता रीती ;

लेकिन, जिनका स्रोत हिमानी,

कैसे सूखे उनका पानी !

कब इन आँखों रहती है बरसात नहीं !!

1955

37.

मैं ही नहीं समझ पाता हूँ, तुमसे क्या मिलता है !!

झूठ नहीं कहते होगे तुम, देते होगे दान !

मुझको ही अकुला देता है, करुणा का परिमाण !

तुम्हीं उतरते होगे दृग में, जब-जब मन हिलता है !!

मेरा धन तो यही पंक ही, या कुछ पंकिल नीर !

पंकज यहाँ खिला जाते हैं, किन किरनों के तीर !

तुम्हीं हुलसते हो क्या, जो यह मन मुझमें खिलता है !!

अभी यही विश्‍वास नहीं है, तुम मेरे हो मीत !

यही हरा देता है मुझको, यहीं तुम्हारी जीत !

जगते हो, जब जग सोता है ; कितनी अनमिलता है !!

1955

38.

मैं दिल को दुहरा भार नहीं दूँगा !!

जो दोस्त मुझे कहते हैं कहने को,

वे ही शायद आए हैं रहने को !

मैं दो दिन का मेहमान-- कहूँ तो क्या?

दिन ही कितने बाकी हैं सहने को !

मैं दुश्मन को भी हार नहीं दूँगा !

लग गई आग-- जाने किसकी गलती !--

ऐसे में कोई युक्ति नहीं चलती !

मैं हूँ कि स्वप्न-सा यह भी देख रहा--

चल रही नाव मेरी जल में जलती !

ज्वाला को भी जलधार नहीं दूँगा !!

1955

39.

तुम एक बार फिर मेरी ओर निहारो।

इस बार तुम्हें नूतन ही दृष्‍टि मिलेगी,

नीराजन बन अभिनव ही सृष्‍टि खिलेगी ;

सच कहता हूँ, जो अब तक नहीं हुई थी,

अबके सावन में ऐसी वृष्‍टि मिलेगी ;

दर्शन तो सम्मुख हों, तब दृश्य बिचारो

अब निर्मल-जल भर है, सेवार नहीं है,

लहरें चोटी पर हों, वह ज्वार नहीं है ;

तूफान बँधे कलरव की स्वर-लिपियों में,

सागर तो है, पर हाहाकार नहीं है ;

अब एक बार ऐसे में नाव उतारो।

साँसत की धूली थी, यह नभ धूमिल था,

आँधी में आँख खुली रखना मुश्किल था ;

अचरज क्या, तुम जो लौट गए इस पथ से--

तब ऐसा शरत्-सुहास न मलयानिल था ;

अब आओ, इस सूने में पाँख पसारो !

1958

40.

इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो !

पर्वत पर की यह झील झकोरे खाकर

झरना बन जाने को आकुल-व्याकुल है ;

कुछ ठीक नहीं, कब टूट जायँ तटबन्‍धन,

इन कूलाकुल लहरों में वेग विपुल है ;

पतवार तुम्हीं मेरी इस बार सम्हालो।

खारे पानी में ऐसी बात नहीं थी,

तूफान वहाँ भी बहुत बार उठते थे ;

लेकिन यह झील ! यहाँ फिर ऐसी आँधी !

इस भाँति वहाँ ये प्राण नहीं घुटते थे ;

विषकण्ठ ! तुम्हीं विष का यह ज्वार सम्हालो।

1958

41.

प्रिय यह प्राणों की मालिन अनुक्षण उन्‍मन रहती है !!

मधुऋतु बीती, कुसुमों में रंगत ही आते-आते,

जब रंग चढ़ा, तब देखा, सबको लू में अकुलाते ;

करुणा की सूखी आँखें भर-भर आईं, ढर आईं ;

फिर ज्वार जगानेवाली किरणें भी क्या मुसकाईं !

अब इस पतझर में देखूँ, यह क्या-क्या दुख सहती है !

रह-रह मन्‍दिर में जाती, चुप्पी-सी रह जाती है ;

फिर बाहर दौड़ी आती, हँसती है, पछताती है ;

यह थाती, जो बंधक है, किस रोज छुड़ा जाओगे?

इसको इसका लौटाने, बोलो, कब तक आओगे?

यह तुम पर है, तुम देखो, यह दुनिया क्या कहती है !

1958

42.

तुम नहीं होगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है !!

बार-बार मना किया, पर मानते ही तुम नहीं !

मानने की बात, मानो, जानते ही तुम नहीं !

घेर लेते हो अकेले में मुझे क्यों इस तरह?

लोक की मरजाद कुछ पहचानते ही तुम नहीं !

तुम न दुख दोगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है !!

क्यारियों को क्या करीलों से सजाते हैं कहीं !

बाँसुरी को क्या कमानी से बजाते हैं कहीं !

छेड़ते हो तार वीणा के, मृदंगी की तरह !

मीड़-पीड़ित को भला ऐसे सताते हैं कहीं !

तुम न छेड़ोगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है !!

1958

43.

दिशि-दिशि घन-अन्‍धकार ;

जाना है सिन्‍धु पार।

तरणी असफल अधीर,

ओझल हर ओर तीर,

फेंको प्रिय वह प्रकाश,

उतरे दृग में कगार !

अब तक तो लाज रही,

ज्यों-ज्यों यह नाव बही ;

बल-मद सब छूट रहा,

बनकर अब जल-विकार।

झूठा भी यह गुमान

पा जाए सत्य मान,

तुम जो चाहो, उदार

हे मेरे कर्णधार !

1958

44.

बन्‍धु ! जरूरी है मुझको घर लौटना,

एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर।

देर तनिक हो गई वहाँ, बाजार में,

मोल-तोल के भाव और व्यवहार में ;

आईना था एक अनोखी आब का,

इन्‍द्रजाल-सा था जिसके दीदार में ;

मैं गरीब ले सका न अपने भाव पर।

सनक नहीं तो क्या कहिए, इस ठाट को--

कौड़ी लेकर साथ, चला था हाट को,

जहाँ प्रसाधन बिकते हैं शृंगार के !--

कौन पूछता मुझ-जैसे बेघाट को?

पड़ता रहा नमक ही मेरे घाव पर !

हल्का हूँ, कुछ खास न हूँगा भार मैं,

निर्धन हूँ, दे सकता हूँ, बस, प्यार मैं ;

गीत सुनाऊँगा मीरा के, सूर के ;

ले लेना, जो पाऊँगा दो-चार मैं ;

कृपा करो अब, सिर धरता हूँ पाँव पर।

1958

45.

जाहिर है, तुम कल रात यहीं पर थे,

हरियाली पर पद-चिह्‍न तुम्हारे हैं ;

तारों के फूल बिछे थे, सो अब तक

हो रहे सजल शबनमी किनारे हैं ;

रस-बस बेबस जो रहे नयन-बन्‍दी,

खुल रहे कमल में वही इशारे हैं ;

वन के जीवन में यों जो आग लगी,

पानी में फूट रहे अंगारे हैं !!

1958

46.

कब तक यह आँखमिचौनी रे !

कब तक यह आँखमिचौनी?

कब तक ताकूँ राह तिमिर में, इकटक, बनकर मौनी, रे?

किस खेती पर आशा बाँधूँ, नाधूँ मन की दौनी, रे?

दाना एक नहीं गिर पाता, यह भी कौन उसौनी, रे !

चाँद पकड़ने चली बावली, यह अवनी की बौनी, रे !

शशिधर ! तुम्हीं मिलो तो माने, यह नागिन की छौनी रे !

1958

47.

जागो जगत्‍प्राण !

सुधि के बरुण-बाण,

भूतल-अनलवान शीतल करो हे !

लाओ ललित हाव,

भव में भरो भाव,

कलिमल कुटिल चाव प्रांजल करो हे !

पाकर तुम्हें कूल,

कलियाँ बनें फूल,

हर फूल की धूल परिमल करो हे !

1958

48.

चौराहे तक लाए, अब आगे की राह बताओ।

नयनों में यह कौन झलककर सहसा छिप जाता है,

चाव जगाता है प्राणों में पावस भर लाता है?

यह रहस्य-छायातन क्या है, परिचय तुम्हीं कराओ।

चक्कर ही तो रहा अभी तक, कितना क्या भरमाया !

अग्निपरीक्षा लेकर भी क्या तोष नहीं पाया?

सीधी राह दिखाओ अब तो घूम न और घुमाओ।

तुम चाहो तो बात बड़ी क्या, मंजिल मिले पलक में,

पल न लगे कि शिखर-मणिमंडप उतरे नयन-फलक में;

कबसे दौड़ रहा हूँ बाहर, अब तो घर पहुँचाओ।

1958

49.

मेरे श्रम का मोल, तुम्हीं बतलाओ।

खनना मेरा काम, काम का भागी ;

आमद जाने राम, दाम का भागी ;

खनिज-शशि-गुण-मान, कहूँ मैं कैसे?--

कौड़ी और छदाम, दाम का भागी ;

अपने काँटे तोल, तुम्हीं बतलाओ।

यहाँ न्याय की नीति, खने सो खाए ;

निरपवाद यह रीति, करे तो पाए ;

खटना ही आराम, राम कहता है ;

छोड़े छल की प्रीति, सधे, जो आए ;

तब क्यों टालमटोल, तुम्हीं बतलाओ।

छूट गया जब गाँव, कहाँ था तब मैं !

कहाँ मिल सकी छाँव, तपा था जब मैं?

किये शूल ही फूल, धूल ही चन्‍दन !--

ऐसे पावन पाँव तजूँ क्यों अब मैं?

बनूँ बीन से ढोल? तुम्हीं बतलाओ !

1958

50.

दर्शन के प्रतिहार, नयन निशि-भर जागे !!

कितने बन्‍दी राग खुली आँखों निकले ;

मचले पीत पराग, हवा के संग चले ;

फड़के जुड़कर पंख, कटे थे जो तम से ;

दमका दिशि-अनुराग, कि निशि के स्वप्न गले ;

हरियाली के हार मयूखों ने माँगे !!

1955

51.

जब-जब तुम आते हो, उपवन खिल जाता है !

आँधी की चंचलता रुक जाती,

संयत हर शाखा है झुक आती ;

तुमसे पाकर करुणा के सीकर

चन्‍दन-वन-ज्वाला है चुक जाती ;

तुमको पाकर वन को क्या तो मिल जाता है !

कलियों के आनन अरुणा जाते,

अभिनव तरुपल्लव तरुणा जाते ;

सिंचित होकर तुमसे, हे रसधर !

कर्कश काँटे तक करुणा जाते !

बौछारों से तप का आसन हिल जाता है !

1958

52.

उड़ा-उड़ा मन उड़ने से लाचार है !

पाँखों का होना भी लगता भार है !!

तट पर हूँ, धारा में मेरी नाव है ;

चाहूँ तो उड़ जाऊँ, यह भी भाव है,

पर, मेरे पाँखों को यह क्या हो गया?--

इनमें कम्पन का भी आज अभाव है !

राह सुगम होकर भी आज पहाड़ है !

आज किनारा ही मुझको मँझधार है !!

1955

53.

कितना मीठा है यह वंचन !

अपनों में मैं जब रहता हूँ,

रहता है उल्लास उछलता ;

अपना ही अभिनय अपने को

तब कैसे-कैसे है छलता !

पचना था जिसको निस्तल में,

फेनों में छलका पड़ता है !

दाहशेष जीवनोच्छ्वास ही

घनीभूत होकर झड़ता है ;

इसी तरह क्या चला करेगा, मुझसे ही मुझमें यह प्रहसन?

1955

54.

मुझे टूट जाने से बचा रखोगे--

तभी न रस कुछ मुझसे भी पाओगे !

कमी अमी की नहीं तुम्हारे मुख में--

तुम्हीं नहीं सुख पाते अपने सुख में !

स्वाद बदलने का जब जी होता है--

होंठ लगा देते हो मेरे दुख में !

मगर, फूट जाने से बचा रखोगे--

तभी न मेरा विष भी पी पाओगे !!

1955

55.

मैं क्या चाहूँ? चाह तुम्हारी ;

चाह तुम्हारी ! मैं क्या चाहूँ?

चलने दोगे जो मनमाना,

तो मेरा फिर कौन ठिकाना?--

किस नाले में रथ ले जाऊँ ;

पाँव तुड़ाऊँ और कराहूँ !

मेरी रास तुम्हारे कर है,

मैं क्या जानूँ, लक्ष्य किधर है?

कर्षण बिन अविनीत तुरग मैं

भाव तुम्हारा कैसे थाहूँ?

ऐसे में जो यों हाँकोगे,

धूली ही तुम भी फाँकोगे !

परम रथी तुम हो, फिर भी, मैं

इस गति को किस भाँति सराहूँ?

1958

शब्दवेध

रचनाओं के शीर्षकों की सूची :

1

रस की ऋतु बीत गई

2

पंगु मुझे करके

3

फिर पागलपन घेर रहा है

4

मैं विहँसता चल रहा हूँ

5

ममता मेरी, मुझको

6

जागो प्राणों के दीप

7

मेरा कच्चा घट

8

तू अपना घर अगर

9

तुम न हो सके मन के

10

मैं तुमको संदेश सुनाऊँ

11

व्यथाकुल प्राण को जब

12

मेरे लिए कष्ट न करो

13

साजन के ढिग कैसे जाऊँ

14

आई कुछ ऐसी नींद हमें

15

रहूँ ठाठ से

16

ऊमस की है रात

17

अपनी गति का सोच

18

मैं लुटा रहा हूँ दिल अपना

19

पपीहा बोल उठा

20

मेरे श्रम का मोल

21

ताल से तीर पर

22

मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ

23

मेरी छोड़ो

24

माँ, मुझको यह जग प्याराहै

25

माँ, यह अश्वमेध का घोड़ा

26

मैं बजने को तैयार हूँ

27

देर हो गई

28

आज चैत चढ़ गया

29

आज भी न आए

30

अभुआते रात कटी

31

मुझे ईख-सा पेर दे

32

नींद उड़ गई है

33

कलरवों के नीड़ पर

34

गीतों में ही फूटता रहा हूँ मैं

35

प्रणव-धनु पर

36

चरण में मन को शरण दो

37

आशिष उनकी नहीं फली

38

मुझे हारने का दुख कम है

39

साध सुध की बीन

40

सुध रहे तब तो पुकारूँ

41

जाग दीप मेरे

42

मुझसे मेरी छाँव छुड़ा दो

43

केवल मेरे पास बसो तुम

44

मेरी ऐसी गति पर

45

माटी के तन में

46

भ्रम ही है यह

47

तुम बिन कौन गुने

48

कैसे चैन लहे

49

अब तुमसे क्या और कहूँ मैं

50

मन है, यों मन-प्राण

51

चित्र तुम, पट मैं

52

अलग भी है

53

कौन कहे

54

मिला करें चरणों के

55

नदी बहती है

56

आरती बने

57

गीत नहीं, करुणा के कण हैं

58

भर देते हो

59

नयन आकाश होना चाहिए

60

आप कब आए

61

प्यारी तुमको कला

62

करुणा, जो पत्थर को

63

ओ नीली छतरीवाली

64

मेरे भीतर आभास तुम्हारा

65

सुनते ही शिशु का रुदन

66

विश्वास जहाँ

67

दिन जाते देर नहीं लगती

68

हे सौम्य सूर्य

69

प्रतिदिन, अपने पदगत होते ही

70

तेरे चरणों की शपथ

71

बस तेरी कृपा भरोसे

72

क्या करूँ रोज ही तो

73

हर स्वरूप में जब तक

74

अपने चरणों का रंग

75

हर सुबह लाल चादर

76

कब तक आँखों पर

77

निर्वात -- कि दल तक

78

व्याकुल तो हूँ

79

एकांत प्रांत में

80

यह शिला बड़ी चिकनी है

81

जब कभी प्रियपदनखच्छवि

82

और कुछ न सही

83

खिलौना बनाकर

84

चमन का दिल बहुत

85

उनको जब मेरी याद

86

नाम जो पाया

87

मौसमेगुल उधर सुहावन है

88

इधर तोपते हैं

 

 

रचनाएँ

1.

रस की ऋतु बीत गई, सखि री ! यह अमराई सरसा न सकी !

मधु के माली आए तो थे, पर बगिया ही मँजरा न सकी !

कलरव करता कोकिल कोई कौतूहल-सा आया तो था ;

घन का नभ से परिचय जैसे, सूनेपन में छाया तो था ;

दरदीला ही न मिला कोई, उसने दिल से गाया तो था ;

बन ही भरपूर न भींग सका, उसने रस बरसाया तो था ;

अब तो सरि भी सिर धुनती है, वह धुन मुझको क्यों आ न सकी !

1951

2.

पंगु मुझे करके कहते हो, शिखर चढ़ो !

एक नहीं औजार ;

और तब कहते हो, बैठे क्यों हो जी?

गढ़ो, गढ़ो !

मालिक मेरे, यही तुम्हारा न्याय?

व्यय की तो कौड़ी- कौड़ी पर कड़ी आँख है ;

रत्‍ती-रत्‍ती कंचन पर है कड़ी कसौटी ;

बात-बात पर अग्निपरीक्षा, लोक के लिए ;

पर यह भी न गिनते हो कभी

कि तुमने अपने इस गुलाम को

संबल ही क्या दिए?

और, कुटी की है कुल कितनी आय?

पर कहने में न चूकते--

तुम कितने निरुपाय !

देख-देखकर भी लोगों को बढ़ते,

बढ़ने की लालसा नहीं जगती क्या?

उठो, बढ़ो जी, बढ़ो !

सेनप मेरे !

ऐसी विकट भयानक यह रणभूमि !

कोसों एक न छाँव ;

भरी है दलदल। दूरबीन तो दूर--

मानचित्र भी पास नहीं सैनिक के,

और, न कोई यान ;

यान क्या सुलभ न मृदु पदत्राण।

लेकिन, यह आदेश--

करो या मरो !

1951

3.

फिर पागलपन घेर रहा है !

मेरे मन को जैसे कोई अपनेपन में फेर रहा है !

लगता है ऐसा अपने में,

जाग रहा हूँ मैं सपने में ;

लेकर मेरा नाम न जाने कौन, कहाँ से टेर रहा है?

जड़ता के ऐसे निर्जन में,

शिल्पी कोई मेरे मन में

धड़कन की छेनी से अपने मन का रूप उकेर रहा है !

कुछ न हुआ तो पुलिन पटाए,

बादल ने बनफूल उगाए,

आज इन्हें भी मौसम का मन कैसे-कसे हेर रहा है !

1951

4.

मैं बिहँसता चल रहा हूँ हार पर !

कौन यह पंछी?-- चमन में शोर है;

हर सुमन-मन में समाया चोर है ;

हर कली मुद्रा बनी है प्रश्‍न की ;

एक कौतूहल जगा सब ओर है ;

गुल खिलाता चल रहा हूँ खार पर।

छाँव आँखों में किसी की है घनी,

चाह प्राणों में अँगारे-सी बनी ;

चाँद अब आवे न आवे, ग़म नहीं ;

छन रहे आँसू नजर है चाँदनी ;

पल रहा हूँ मैं मधुर अंगार पर।

1952

5.

ममता मेरी, मुझको लाचार न कर !

आँधी के कंधों पर ही चलने दे,

ऊष्म की आहों पर ही पलने दे ;

हरियाली का मुझसे अब हाल न कह--

बगिया फल आई है तो फलने दे !

ठंढक देकर मुझको हिमहार न कर !

टकराता हूँ जलती चट्‍टानों से,

ऊपर ही उठता हूँ तूफानों से ;

बड़वा-दावा की भी परवाह नहीं,

बस, दिल घबराता है हिमवानों से !

हिम-आसन से मेरा सत्कार न कर !

1954

6.

जागो प्राणों के दीप ! नयन की राह अँधेरी है।

वैसे तो जाग रही भू पर, जुगनू की जोत बहार,

ऊपर तारों के तडित्कन्‍द-- फूले ज्यों हरशृंगार ;

लेकिन यह कालनिशा ऐसी घिर आई है सब ओर,

पथ और अन्‍ध हो गया, बँधे जो लौ के बन्‍दनवार ;

मन का मृग दृग से दूर, ताक में तिमिर-अहेरी है !

तम का अनन्‍त विस्तार, अजब सन्‍नाटे का यह देश--

साँसे बनतीं सनसनी, किरण का वर्जित अनधिप्रदेश !

ऐसे में जो बज उठी बीन-सी, भीनी-सी पदचाप,

कुछ और गहन हो गया नील मणियों का विषल-निवेश ;

किस मणिधर को धरने आई यह रात-सँपेरी है?

दशार्कुल मेरी साध, साधना से पाकर संकेत,

गुंजों से कर शृंगार, चली श्यामाभिसार के हेत ;

घेरे न लाज, दृग लिये मूँद ; पर आगे यह दुष्पार !

प्रकटो प्रकाश मेरे, तम पर बाँधो ज्वाला का सेत ;

देखो तो, इस नेही ने भी क्या पीर अँगेरी है !

1954

7.

मेरा कच्चा घट रीता ही रहने क्यों न दिया, पनिहारिन !

आँवें में जो पका नहीं था, उसको तुमने पात्र बनाया,

कच्चा धागा डोर बनाकर घट को बाँधा और डुबाया--

ऐसे दुस्तर नील सलिल में, किसकी कोई थाह नहीं है ;

जिसके लोने लहर-भँवर से छुटकारे की राह नहीं है ;

ऐसे में कैसे बच पाता, कोरी माटी का यह बरतन ;

नीर-निकष पर कसकर इसका कैसा हाल किया, पनिहारिन !

1955

8.

तू अपना घर अगर सजाकर नहीं रखेगा

तो कोई मेहमान पधारेगा ही क्यों?

यों तो जिसे ग़रज़ होती है, जाता ही है ;

ग़रज़मन्‍द ठुकराने पर भी आता ही है ;

लेकिन जिसका मन कि महाजन ही घर आवे,

वह व्यवहारकुशल घर-बार सजाता ही है !

भग्न भीत पर ही जिसकी नग्नता लिखी हो,

ऐसे घर, मणिकार पुकारेगा ही क्यों !

1956

9.

तुम न हो सके मन के, मन न हो सका मेरा !

बात तो बहुत कुछ है, तुम अगर सुना चाहो ;

हर नकाब उठ जाए, तुम अगर चुना चाहो ;

तुम नहीं घिरे तो फिर याद ने मुझे घेरा !

किस तरह कहूँ यह घर शौक का नमूना है ;

चित्र हैं न गुलदस्ते ; हर तरह से सूना है ;

किस तरह रहोगे तुम, दर्द का जहाँ डेरा !

मैं फकीर हूँ तो क्या ! माँगने कहाँ जाता?

फेर लो दिया अपना, तो बड़ी दया दाता !

फेर में तभी से हूँ, तुमने जो दिया फेरा।

मुझसे पूछते क्या हो ! आसमान से पूछो ;

या नहीं तो खुद, हलफन, अपनी शान से पूछो--

मैंने किस तरह टेरा, तुमने किस तरह हेरा !!

1958

10.

मैं तुमको सन्‍देश सुनाऊँ-- दुनिया का सन्‍देश--

कहूँ किस दुनिया का सन्‍देश?

मेरी दुनिया फूलोंवाली, तारों की बारात की ;

फूल, कृपण काँटों की निधियाँ ; तारे मणियाँ रात की ;

फूलों से है प्यार तुम्हें, मुझको काँटों से प्यार है ;

फूलों के दिन चार, मगर काँटों की रात हजार है ;

काँटे पाकर ही निखरा है फूलों का यह वेश !--

यही इस दुनिया का सन्‍देश !

तारे हैं कलियों के बूटे, रजनी के परिधान के ;

मेरी आँखों से देखो तो जलते फूल मसान के !

नज़र तुम्हारी अम्बर पर है, ऊपर के शृंगार पर ;

मेरा ध्यान अमावस पर है, दीवाली की हार पर ;

क्या होते ये फूल-- न होती रात अगर तमकेश?

कहूँ किस दुनिया का सन्‍देश?

1958

11.

व्याकुल प्राण को जब सुध जरा बेसुध बनाती है,

तुम्हारा प्यार आता है !

गरल तुम दे नहीं सकते, सुधा मैं पी नहीं सकता ;

दिया ही क्यों मुझे यह जग, जहाँ मैं जी नहीं सकता?

विवश मैं ही नहीं, इसमें तुम्हारी भी विवशता है--

कि जब तक होश है, यह घाव कोई सी नहीं सकता !

विसुधि भी क्या कि उठता हूँ सिहर, हर बार, जब टाँका

हृदय के पार जाता है !

मिलन का सुख तुम्हीं ने तो विरह का दुख बनाया है !

तुम्हीं देखो कि देकर आँख तुमने क्या दिखाया है !

तमाशाई बना भेजा, तमाशा कर दिया मुझको !

भुलाया भी तुम्हें ने, और कहते हो, भुलाया है !

कि जिसको आप अपने-सा बनाते हो, वही ऐसा

कठिन उपचार पाता है !

1958

12.

मेरे लिए कष्‍ट न करो उतरने का, प्रभो !

झाँककर हाँक भर दो कि चला आऊँ मैं ;

घेरे जान जाएँ कि पुकारा मुझे किसने है,

सीढ़ियाँ मिलें न मिलें, चोटी चढ़ जाऊँ मैं।

भारवाह हूँ मैं, इसकी न परवाह मुझे,

सर्वदा तुम्हारे द्वार भार ही उठाऊँ मैं ;

मंद हूँ, इसी से पद-सेवा ही पसंद मुझे ;

यहीं रहूँ और यही चाकरी बजाऊँ मैं ॥

तुमसे तुम्हारे ही लिए मैं तुम्हें माँगता हूँ,

पार लगूँ, इसी में तुम्हारा भी उबार है ;

वैभव तुम्हारा नहीं, सिर्फ तुम्हें माँगता हूँ,

क्योंकि और जो कुछ है, गर्द है, गुबार है।

आधी दौड़ पूरी हुई, आधी अब और बची !

हाँफने लगा हूँ, पहरावा बना भार है !

कौन हूँ, कहाँ हूँऔर क्या हूँ, जग जानता है,

आगे जानो तुम कि तुम्हारा क्या विचार है ॥

1962

13.

साजन के ढिग कैसे जाऊँ?

धूलि-बसन तन पर है,

लाचारी दुहरी मन पर है ;

आई मधुर मिलन की रात--

कुंज-निलय कैसे मैं जाऊँ?

अविकच कलियोंवाली

ललक रही जीवन की डाली ;

बन्‍ध बने अपने ही पात--

प्राण-परस कैसे मैं पाऊँ?

एक न संग सहेली,

छोड़ गई सब निपट अकेली ;

साध बनी मधु की सौगात--

भेंट उन्हें कैसे पहुँचाऊँ?

चादर ऐसी काली !

तिस पर पूनम की उजियाली !!

पंच लगाए बैठे घात--

आँगन से कैसे बहराऊँ?

लाज न जब तक छूटे,

कुल का बन्‍धन कैसे टूटे?

उतरूँ, बनकर अतट प्रपात,

सरिता बन सुख-सिन्‍धु समाऊँ !

नाम तुम्हीं अब टेरो,

घेरे मेरे सहज निबेरो ;

निरावरण कंटकमय गात

फूलों की डलिया कर लाऊँ !

साजन के ढिग ऐसे जाऊँ !!

1962

14.

आई कुछ ऐसी नींद हमें, मालूम न हमको हो पाया--

कब रात गई, कब भोर हुआ !

तारे थे तो कुछ जुगनू भी, रह-रह कुछ माँग रहे हमसे ;

आलोक उन्हें हम क्या देते-- बेखुद, बेदम, अपने ग़म से !

काजल ही बरसा किया कुटिल आकाश हमारे आँगन में ;

बस, एक अकेली दीपशिखा भर-रात रही लड़ती तम से ;

तब भी न हमारी आँख खुली, जब सूरज काफी चढ़ आया,

कोलाहल-सा सब ओर हुआ !

ऐसा रसिया झोंका आया कि अबन्‍ध सुगन्‍ध उड़ी, फैली ;

तितली के पाँख पतंग बने, इठलाई पूरब की शैली ;

मधुकोष लुटाकर भौरों ने बदमस्त बड़ाई तो पाई !

पाटल की पौद करील बनी, क्यारी की साड़ी मटमैली ;

टूटा न खुमार-- कि साक़ी ने जब-जब प्याले को सरसाया,

कुछ और नशे को जोर हुआ !

दुपहर अब होने को आई ; अब तो जागें, कुछ होश करें ;

सपना सच करके दिखलाएँ--- सपनों से क्या सन्‍तोष करें ;

गुलशन ही नहीं रहेगा तो गुल कहाँ खिलाएँगे माली?

चाहिए कि पहले उत्पाती आँधी को हम खामोश करें ;

क्या हवा बही इस मौसम में !-- आलम का आलम बौराया !

तन साध रहा, मन चोर हुआ !

1962

15.

रहूँ ठाट से? नहीं, मुझे ऐसा मन मत दो।

मैं ग़रीब हूँ ; मेरी चादर की लम्बाई

उतनी नहीं कि पसरूँ तो हो जाय समाई।

आभूषण, परिधान, ग़लीचे, पलँग क़ीमती,

कोठे को क्यों तरसे, खेत-मजूर की सती?

--दिखे सादगी हीन, मुझे वह अंजन मत दो !

यहाँ पसीना ही गुलाबजल बन जाता है !

माटी पर माटी का ही साबुन भाता है !

नहीं ‘रूज़’का रंग, रक्‍त की है यह लाली ;

--ऐसे को, ओ आता ! यह तितलीपन मत दो।

1962

16.

ऊमस की है रात , न जाने कब बरसे !

दिन की आँच जुगाए सागर खौल रहे ;

सुलग उठे न बनाग, अचल तक हौल रहे ;

पसर न पाते पाँख ; टँगे दृग अम्बर से !

घूँघट-ओट छलककर तारा-घट डूबे ;

सूख रहे पनघट पर गीले मनसूबे ;

बाहर का तम का ज़ोर-- कौन निकले घर से !

चढ़ा साँझ ही से क्या है, जो सीझ रहा?

गमक रहा आकाश, धरातल खीझ रहा ;

‘पी’की टेर पिया को जाने कब परसे !!

1963

17.

अपनी गति का सोच मुझे क्यों हो?

मैं अपनी क्या सोचूँ, जब तुम हो !

निकली हूँ, पथ पर ही हूँ, फिर भी

छूट रहीं आवजें-- निकल गई !

बाना तो अपने कुल का ही है,

गति-विधि भी अविनीत नहीं न नई ;

तब जो उठें उँगलियों-- उठा करें ;

मैं क्यों व्यर्थ सँकोचूँ, जब तुम हो !

यों जो हूँ बेपर्द, यही शायद,

लगता है, पंचों को लगता है ;

बँधी टेक की टक ठक रह जाती ;

कंडे-सा अभिमान सुलगता है ;

फोड़ा करे माथ दुनिया-- पर मैं

क्यों न सुहागों रोचूँ-- जब तुम हो !

पैदल पथ पर, और अकेली भी,

मैं हूँ अभय कि तुम कब साथ नहीं ;

कवच तुम्हारी सुध ; फिर इस तन को

कैसे लगे कलुष का हाथ कहीं !

घूँघट-ओट सुधा-घट से मैं क्यों

लोचन-लवण बिमोचूँ, जब तुम हो !

1963

18.

मैं लुटा रहा हूँ दिल अपना, जो दिल चाहे, ले, लूट ले !

आँखों के मेले में भूली आँखों पर आँखें झूल गईं ;

खेली आँखों के खेलों में भोली आँखें सब भूल गईं ;

धूली ही धूली थी, फिर भी, उसमें था वह काला जादू--

तितलियाँ उतर आईं पाँखों, आँखों में सरसों फूल गईं ;

बोला बसन्‍त-- रसिया जो हो, आवे, रस का यह घूँट ले !

मैंने भी जो चख लिया ज़रा, आँखों के डोरे लाल हुए ;

काँटों में खून उतर आया, बुलबुल के गीत निहाल हुए ;

पानी में फूट पड़े शोले तो मीनों ने मुझको ताका ;

मेरा सुरूर यों चढ़ा कि सब मौसिमी साज बेताल हुए ;

दिलदार दर्द ने ललकारा-- जो सुर में हो, यह छूट ले !

1964

19.

पपीहा बोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

पूरबी जंगलों में सुब्‍ह जो आग लगी,

शाम के घोंसलों में चीख-पुकार जगी--

ज्वाल का जोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

चित्‍त पे ज्वार चढ़ा, स्वप्न की नाव तिरी,

याद के मेह लिये मावसी रात घिरी,

दर्द पर तोल उठा- - पी कहाँ ! पी कहाँ !

कह्‍र की टीस उठी, सिल का दिल चाक हुआ,

साँस पर कर्ज लिया सब्र बेबाक हुआ ;

मौन मुँह खोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

सच कहो, मेरे सनम ! तुम भी क्या चुप ही रहे?

तब जो यह टेर सुनी, किसने दी, कौन कहे !

किसका मन डोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

किसलिए चोंच खुली, खोखले सीप खुले?

पुज सकी चाह-- कहाँ-- स्वाति के वज्र घुले?

लोरजल रोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

क्यों न वह दाह सहे, जिसने यह राह सुनी !

व्यंग्य ही सबने किया, टेर जो ‘पी’की सुनी !

शून्य ठठोल उठा-- पी कहाँ ! पी कहाँ !

1964

20.

मेरे श्रम का मोल यही है क्या?

तन का सुख मन की यह दुविधा--

कहने को जो दी यह सुविधा--

केवल टालमटोल नहीं है क्या?

मैं अनपढ़, दर की क्या जानूँ !

निभ पाउँ तो पूरी मानूँ ;

काँटे का यह तोल सही है क्या?

मधु में भी जो विरह गुँजारे,

रिमझिम में भी तृषित पुकारे,

तेरे मन का बोल यही है क्या?

1966

21.

ताल से तीर पर, तीर से मेरु पर,

अब किधर, किस शिखर ले चलोगे, कहो !

थी तराई जहाँ, मन निडर था वहाँ,

राह थी सामने, देखता मैं चला ;

अब चढ़ाई यहाँ, हर कदम डर जहाँ,

आँख बाँधे बढ़ूँ किस तरफ मैं, भला?

आँख होती खुली, साफ मैं देखता- -

था कहाँ, अब कहाँ, हूँ कहाँ जा रहा ;

पर, तुम्हीं डर गए-- देख गहराइयाँ

मैं कहीं डर न जाऊँ, गिरूँ ढलमला ;

डाल दीं आँख पर मेघ की पट्‍टियाँ,

बिजलियाँ बन, मगर, कब बलोगे, कहो !

1974

22.

मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ, नहीं पता ;

मेरे होने में मेरी क्या खता?

किसी भाँति हल जो न हो सका,

मेरी ज़ीस्त ऐसा हिसाब है !

मुझे किसने किसलिए लिख दिया,

किस अजब अदा से अयाँ किया?

जिसे कोई पढ़ न समझ सके,

मेरी ज़िन्‍दगी वो किताब है !

क्यों करूँ किसी से कोई गिला,

क्या मिला, यहाँ क्या नहीं मिला?

खुदनुमा खुदी के सवालों का,

मेरी बेखुदी ही जवाब है !

उन्‍हें क्या पता, कहाँ क्या कटा,

गुँथा और अँगारों से जा सटा?

किया लुक्मा ज्यों ही जिगर मेरा,

कहा-- क्या लज़ीज़ कबाब है !

कभी बेहिजाब मिले थे वो,

कि बहार बनके खिले थे वो,

जिन्‍हें चिढ़ थी मेरी नक़ाब से,

उन्हें अब मुझी से हिजाब है !

छुटा जाल से तो उड़ा, मगर

कहाँ जाऊँ तुझसे मैं भागकर?

कहीं भी जो पीछा न छोड़ती,

तेरी आँख है कि उक़ाब है !

यों तो तू जहाँ है, बहार है,

खड़ी गुंचोगुल की क़तार है ;

जो खिजाँ में भी है दमक रहा,

देख, यह भी एक गुलाब है !

1978

23.

मेरी छोड़ो ; तुम कैसे हो? अपनी बात कहो !

मेरा तो है वही पुराना

एक राग, एक ही तराना ;

अब क्या मुँह खोलूँ, डरती हूँ, तुमको ऊब न हो।

इतने दिन पर तो आए हो !

और अभी से अकुलाए हो !

एक रात तो कटे बात में !-- मेरे साथ रहो।

आए हो जो सुध लेने को,

पपिही को पानी देने को,

तो आओ, यह आँच काँच की, तुम भी तनिक सहो !

1979

24.

माँ, मुझको यह जग प्यारा है !

माँ ! यह जग कितना प्यारा है !

मन करता है, यहीं रहूँ मैं,

रस की बातें सुनूँ, कहूँ मैं ;

सुख की वर्षा, दुख का जाड़ा,

श्रम की गरमी सभी सहूँ मैं ;

सुबह, शाम, चाँदनी, दुपहरी--

ऐसी और कहाँ कारा है?

छुटकर भी कब मुक्‍ति मिलेगी?

वही दंड की उक्‍ति मिलेगी ;

इससे तो बदतर ही होगी--

और कहीं जो मुक्‍ति मिलेगी ;

पानी की क्या कमी, कहीं, पर

नीर कहाँ ऐसा खारा है?

यहाँ बदलता रहता है मुख ;

आँखें भी जो दे जातीं दुख ;

स्थिरता में भी अस्थिरता ;

अस्थिर क्षण दे जाते चिर सुख ;

ऋतुओं वस्त्र बदलनेवाला

यह जहान सचमुच न्यारा है !

1979

25.

माँ ! यह अश्‍वमेध का घोड़ा किसने छोड़ा है?

जी करता है, इसे बाँध लूँ,

फिर ताँगे में नाध साध लूँ,

लेकिन, डरता हूँ ; कोई मामूली घोड़ा है !

कितना छोटा मेरा कद है !

घोड़ा कितना बड़ा, प्रमद है !

रस्सी कितनी छोटी ! बित्‍ते-भर का कोड़ा है !

फिर भी कथा सुनाती है तू,

मेरा जोश जगाती है तू ;

कहती-- डर ही नर के पौरुष-पथ का रोड़ा है।

होता तो मैं भी ; पर कैसे?

लव-कुश क्या रहते थे ऐसे?

तू ही देख कि जो मिलता है, कितना थोड़ा है !

1979

26.

मैं बजने को तैयार हूँ, मत मेरे तार उतार !

आँखों में ऐसी अंजनता !

पाँखों में कैसी खंजनता !

मैं अँजने को तैयार हूँ, तू दीपांजन तो पार !

वरदान मिला था जो तेरा

सरदर्द बना है अब मेरा

मैं तजने को तैयार हूँ, निज कर यह मुकुट उतार !

दिल हो, तो दिल के सान चढ़ा,

दृग या पग के पाषाण चढा ;

मैं पजने को तैयार हूँ, किस सिल पर देगा धार?

पीतल क बरतन धोना है,

ऐसा कि लगे, यह सोना है ;

मैं मँजने को तैयार हूँ, जो तुझे नहीं इन्‍कार !

जो फिर भी तेरा मन मचला,

तो ‘ना’मैं कैसे करूँ भला !

मैं सजने को तैयार हूँ आ, मेरे साज सँवार !

1979

27.

देर हो गई !

सूरज सिर पर होता है जब,

आँखें मेरी खुलती हैं तब ;

ऐसी बिगड़ी आदत को मैं

कैसे बदलूँ?-- मुश्‍किल है अब।

गाड़ी रुकी रहे, कब मुमकिन?

उफ् ! अबेर हो गई !

सपने में जा रहा था बहा ;

झटका देकर दोस्त ने कहा--

“ अरे अदालत का भी तुझको

क्या खयाल कुछ भी नहीं रहा? !”

--यहाँ सपरते दुपहर बीती,

वहाँ टेर हो गई !

1979

28.

आज चैत चढ़ गया !

बन तो महके, हमीं न बहके ;

आक, ढाककोंपल, सब लहके ;

पर, यह डैना कौन? कि पंचम में क्या तो पढ़ गया?

कहाँ गई, मिलना था जिससे?

खबर मिल रही यह अब किससे?

श्यामा रानी क हरकारा क्या कहता बढ़ गया?

अब भी है क्या चूल्हे पर ही?

बासी हुई कहाँ, होकर भी?

उबली कढ़ी, कटोरा छलका ; रस ही सब कढ़ गया !

जल्दी कर, रे चोर चटोरे !

चौरे धर आ माल बटोरे ;

जहाँ कटोरा चला कि तुझ परपर का भी मढ़ गया !

1979

29.

आज भी न आए !

किस लाज के लजाए? !

घाट की कथा तो

अब हो चुकी पुरानी ;

कौन चौंकता है--

सुन चीर की कहानी? !

क्या हुआ रई को?--

चलती नहीं चलाए !

हर तरफ खड़ी हैं,

अपवाद की उँगलियाँ ;

भीत क्या टपूँ मैं !--

हैं बंद सभी गलियाँ ;

द्वार पर खड़े हैं

सब खुखड़ियाँ उठाए !

टेर रहे मुझको,

अब किस करील बन में?

बिंध रही यहाँ मैं,

कंटाल आयतन में !

कौन भला उनको,

अब तस्करी सिखाए?

1979

30.

अभुआते रात कटी, छूट कहाँ पाई?

जल भरने यमुना तट, गई थी अकेली ;

देखते, गई सुध-बुध ; इतना तो खेली !

कहाँ किसी जतन घटी, वहाँ जो समाई?

गुनी तो कई आए, बहुत बुदबुदाए ;

ठीक मुझे क्या करते, अपने पटकाए ;

उनसे मेरी न पटी ; हो गई लड़ाई !

अब देखूँ यह आए हैं कैसे गुन के !

लाखों में एक लोग लाए हैं चुनके ;

छूते ही छाँह सटी ; क्या दशा बनाई !

छूटते कहा-- पानी ! बच गए, बहुत है !

बतलाऊँ क्या? अद्‍भुत है, बस, अद्‍भुत है ! !

नाक रह गई, न कटी ; दे अब उतराई !

मेरी पूँजी ही क्या? कौन-सी कमाई?

दक्षिणा कहाँ से दूँ? आ गई रुलाई ;

--नाव में नदी सिमटी, आँख जो मिलाई !

1977

31.

मुझे ईख-सा पेर दे !

धरकर मुझे याद के दाँतों

मर्मपेषणक फेर दे !

पीड़ननिरत रहे स्मृतियंत्रक,

शेष लेश भी रस हो जब तक,

पर, पहले, यह गाँठोंवाली

मेरी छाल उधेर दे !

सिट्‍ठी हो जाएगी मेरी

सत्‍ता, जब जाएगी पेरी,

यह अनुरोध कि फिर भी मुझको

अकुलाने कुछ देर दे !

1977

32.

नींद उड़ गई है !

उगते अस्त हुआ रवि जिस दिन

आँधी उठी, उड़े सुख के तृण ;

सिमट गए सब दृश्य ; किस कदर

दृशि सिकुड़ गई है !

बाहर कोई क्या पहचाने !

घायल की घायल ही जाने ;

मृग से उसकी नाभि, सर्प से

मणि बिछुड़ गई है !

भीतर जैसी है यह माटी,

कैसे निकसे, ऐसी काँटी?

वज्रहृदय में गड़कर कोई

याद मुड़ गई है !

1977

33.

कलरवों के नीड़ पर जो वज्र औचक आ गिरा है ,

आसमाँ हैरान है-- यह गूँजती किसकी गिरा है?

काल तो समझा कि अबकी फैसला होकर रहेगा,

इस क़यामत में किसी का घोंसला क्योंकर रहेगा !

ज़िंदगी की आन, लेकिन , फिर कहीं से कूकती है--

देखना अतंक, विटप यह फिर हरा होकर रहेगा !

साज फूलों का यही होगा, कुहासा जो घिरा है !

आसमाँ हैरान है, यह गूँजती किसकी गिरा है?

फिर अमृत उच्छ्रित करेंगे फिर अरुंतुद स्मृति-बाण मेरे,

प्रकट सारस्वत सुधा के घट बनेंगे गान मेरे ;

उच्छूवसन घन बन घुमड़ संजीवनी वर्षण करेंगे,

दग्ध वन को फिर हरित-कूजित करेंगे प्राण मेरे ;

सत्य कल का है, अभी जो स्वप्न आँखों में तिरा है,

आसमाँ हैरान है, यह गूँजती किसकी गिरा है?

1987

34.

गीतों में ही फूटता रहा हूँ मैं,

गीतों में ही आगे भी खुलूँ, खिलूँ।

क्या थे वे दिन ! जब ज्वार-जवानी थी !

लावण्य चाँद सँग रास रचाता था ;

हँसते थे कमल, सकुचते भी जब थे,

मेरा रक्‍तार्णव फाग मचाता था।

जम गई तरलता ही प्रलयी हिम से ;

अब चाहूँ भी तो मैं किस भाँति हिलूँ?

काँटों का मन, काँटों का तन, कैसे

क्या-क्या होकर गुजरा, जैसे-तैसे ;

साँसों की फाँसों फाँसी चढ़-चढ़कर

मर-मरकर कौन जिया होगा ऐसे !

कवि होने से ही क्या यह दंड मिला?

भीतर सीझूँ, बाहर से कटूँ , छिलूँ?

मुझको संस्कृत कर दुख की दीक्षा से,

क्रमश: कुन्‍दन कर अग्निपरीक्षा से !--

लाए हो इस आश्रम तक, तो स्वामी !

अच्युत कर दो, चिद्‍भाव-समीक्षा से ;

रख लेना मुझको भी पद-आश्रय में ;

परिव्रज्या पूरी कर जब पुन: मिलूँ।

1988

35.

प्रणव-धनु पर प्राण-शर धर

शब्दवेधी साधना कर।

कल्पना के कल्प बीते,

आयु-घट अनगिनत रीते ;

पथ वही, घाटी वही है,

घूमकर तू भी वहीं पर।

कामना थी स्वर्ण-मृग की,

देख ली करतूत दृग की ;

ताकता ही रह गया तू,

वेध का आया न अवसर !

अब भरमना छोड़, पगले !

बाँध मन का मंच पहले ;

श्रवण-तत्पर, अलख पद की

सूक्षम ध्वनि धर, रे धनुर्धर !

1961

36.

चरण में मन को शरण दो।

नाम-भर मैंने सुना है ;

रूप, क्या मालूम, क्या है ;

किस तरह मैं देखता हूँ--

देखना हो तो नयन दो !

एक पग से भूमि नापी,

दूसरा आकाशव्यापी ;

नाप लो मेरा अहम् भी--

शीश पर पावन चरण दो !

सिद्धि-छल-छवि के चितेरे !

एक तुम ही साध्य मेरे ;

माँगता तुमसे तुम्हीं को--

भक्‍ति ही का आभरण दो !

1961

37.

आशिष उनकी नहीं फली,

पर लाज मुझे लगती है !

कैसी बात किसी ने पूछी !--

तू अब तक छूछी की छूछी,

उनकी होकर, जिस श्री से

श्रील बनी जगती है !

क्या उत्‍तर दे मेरी ममता--

औरों से मेरी क्या समता !

उनकी मर्जी जिसे सिंगारें ;

मेरी साध सती है !

पानी पर ही प्राण अघाए,

आँचल पर जाड़ा कट जाए ;

माया अपनी सिद्धि दिखाकर

मुझको क्या ठगती है !

1961

38.

मुझे हारने का दुख कम है !

अधिक सोच है, वचन तुम्हारा

जाता है दुनिया से हारा ;

श्रद्धा की हो रही हँसाई ;

हेला हँसती, भक्‍ति भरम है !

कहते हैं, दरबार तुम्हारे

देर भले हो, न्याय न हारे ;

इस अँधेर का क्या जवाब दूँ?

साँसत में मेरा संयम है !

जोर तुम्हारे गरब-गहेला

लड़ा किया मैं निडर अकेला ;

खल-वन्‍दना नहीं क्यों कर ली--

मुझको बस इसका ही ग़म है !

1961

39.

साध सुध की बीन !

बाँध अब स्वर के अभंगी तार ;

धुन उठे, घहरे, झरे झंकार--

परस की पोरों पुलक की आँख

खोल, रे दृगहीन !

मीड़-पीड़ित मूर्च्छनाहत प्राण

लक्ष्यगत हों, ज्यों बरुण के बाण ;

स्वरस-संध्वनि में विवादी माख

हो सहज लयलीन।

मोह की मिहिका पिये, निस्पंद,

रात-भर बेसुध रहे जो बंद,

सरस परस लहे खुलें वे पाँख--

रश्मिधर, स्वाधीन !

1963

40.

सुध रहे तब तो पुकारूँ !

चाहिए यदि कूज हंसी,

फूक तू ही प्राण-बंसी ;

अधर-रस करतल-परस से

मैं बिसुधि अपनी बिसारूँ !

मन बने घन की बलाका,

तन-पुलक तरुदल-पताका ;

खोल सौ-सौ आँख, पाँखों

छवि धरूँ, पलकों सँवारूँ !

सघन चकमक के जगाए

दाह को उर से लगाए,

नृत्यरत, सतरंग थालों

आरती तेरी उतारूँ !

1963

41.

जाग दीप मेरे !

तमसावृत व्यसोमवृत्‍त,

भयमय भू भोगचित्‍त ;

दाहविकल सिन्‍धु सकल,

अनल-अनिल प्रेरे।

भव के विज्ञानचरण

न्योत रहे हिंस्रमरण,

कौन इस विनाशमुखी

हय का मुँह फेरे?

तेरा तपलीन ध्यान

लाए मंगल बिहान ;

ज्ञान-भान का वितान

तम-तुहिन न घेरे।

1962

42.

मुझसे मेरी छाँव छुड़ा दो !

मति ही अति बाधा है मेरी !

भीतर फेरा, बाहर फेरी ;

दे दो थोड़ी राख मुझे भी,

इस ठगिनी का ठाँव छुड़ा दो !

मंजिल मेरी और कहीं है ;

हूँ जिस पर, वह राह नहीं है ;

एक बार, बस, एक बार हे !

इस दलदल से पाँव छुड़ा दो !

भर पाया मैं ऐसे घर से ;

अपने भी लगते हैं पर-से ;

साथ मुझे भी कर लो, योगी !

कल-छल का यह गाँव छुड़ा दो !

1964

43.

केवल मेरे पास बसो तुम !

एक मुकुर में सौ-सौ मूरत,

सकुतूहल मैं देखूँ सूरत ;

मीड़ित साँसें गमक बनें जब,

रोयें-रोयें रमक, हँसो तुम !

अचपल मेरे रसिक शिलीमुख

रूपविचुंबित ; लीन सुधा-सुख,

चपल किरन के संग न बहकें--

और कसो, कुछ और कसो तुम !

काफी है आधी ही चितवन,

सो जाएगा विभ्रमका मन ;

कोजागरा रहे मेरी भी,

सुध के मिस यदि सहज डँसो तुम !

1964

44.

मेरी ऐसी गति पर अब तो लोग तुम्हें हँसते हैं,

देखो, लोग तुम्हें हँसते हैं !

सर्द दर्दवालों की बोली

लगती है छाती में गोली ;

उनका कौन उपाय कि जो मधु के पाँखों डँसते हैं?

अलि हँसते सोनामाखी को,

तितली दीप-सती पाँखी को ;

परता जहाँ बनी तत्‍परता, सब यों ही नसते हैं !

मुँह कैसे क्या बात बनाए,

घर का भेद न खुलने पाए?

करुणा के बादल जब स्वर की घाटी में फँसते हैं !!

1966

45.

माटी के तन में कंचन की यह लौ !

तप की जो आँच सही,

जगती ने ज्योति लही ;

रात अभी उतरी ही थी कि फटी पौ !

श्याम बन सजन आया,

राधिका बनी माया ;

करके शृंगार चली-- सात और नौ !

स्वर्ग चकित है निहार

भू का यह दीप-हार ;

यक-यक लौ पर न्योछावर पर, सौ-सौ !!

1966

46.

भ्रम ही है यह आस-रतन भी !

सिद्धि भले साधें हठयोगी !

निधि पर टक बाँधें मठभोगी ;

गति के फेर पड़ूँ मैं क्योंकर?

बन्‍धन ही है मुक्‍ति-यतन भी !

मैं न वियोगी योगी त्र्यम्बक,

शून्य न मेरी टेक न त्राटक ;

फिर मुझको क्यों ताक रहा है,

कैसी गति के लोभ, अतन भी?

1966

47.

तुम बिन कौन गुने यह पीर !

चहुँ दिसि घोर चकोर-अमावस,

झंझावात, शिशिर में पावस ;

अंजन-अन्‍ध नयन-मन कातर,

अनवधि आस अधीर !

तट की टेर दशन-विष-लहरी,

तर्जनियाँ, दुनिया की, प्रहरी,

समय-सँकेत ; कदम्ब-तले मन,

तन छदहीन करीर !

मन के चोर ! तुम्हीं चोरी से,

या, चाहे तो, बरजोरी से,

मेरे इस घेरे में आओ,

मुक्‍ति बने जंजीर !

1973

48.

कैसे चैन लहे मन-मीन?

पनघट पर काजल की तूली

रेख रही व्रज की गोधूली ;

विद्रुम-तट पर पसर ढरककर

जमुना अन्‍तर्लीन !

बंसी में अँटकी अभिलाषा ;

बूझे कौन विकल जलभाषा?

कसती जाती शिथिल सगुणता ;

तृष्‍णाकुल पाठीन !

दृग का लोभ गले का काँटा ;

जीवन दाह ; श्‍वसन सन्नाटा ;

तट पर खींच धरो घट में, या

कंठ करो स्वाधीन !

1974

49.

अब तुमसे क्या और कहूँ मैं !

इधर विषम-जल-ज्वाल जगी है,

उधर विकट वन-आग लगी है ;

तिस पर काँटा अलग लगा है ;

ऐसे में कैसे निबहूँ मैं?

दृग अनिमेष कि कब उगते हो,

तरल अँगार ललक चुगते हो ;

उदित हुए तो किस छाया सँग !

यह कसकन किस भाँति सहूँ मैं?

सस्मित वन-वन अनतु धरे तनु

पाँच विशिख धर तान रहा धनु ;

खोलो तीजी आँख, तभी तो

शरत्-शिखी-सा मौन रहूँ मैं !

1974

50.

मन है, यों मन-प्राण जुड़ाऊँ !

छदन-छदन अनुराग उघारे,

कुसुम-कुसुम रुचि रूप सँवारे ,

सुख-सहकार-सुरभि-शर साधो ;

मैं दुख को कुहुकार बनाऊँ !

प्राणों को ही पाँख बना दो,

पाँख-पाँख को आँख बना दो ;

मन के मधुबन के सूने में

तुम छाओ, मैं पर फैलाऊँ !

धुल जाए सारी अंजनता ;

चकित चकोर, मुदित खंजनता ;

फिर, कोई रट क्या, छटपट क्या?

मैं न रहूँ, मिल तुम हो जाऊँ !

1974

51.

चित्र तुम, पट मैं ; अलग भी कब अलग?

तरलता मुझमें नहीं, तो क्या हुआ?

तरल कूची से मुझे तुमने छुआ !

धार तुम, तट मैं ; अलग भी कब अलग?

मधुपता मुझमें नहीं, तो क्या हुआ?

दर्द का स्वर है, यही क्या कम दुआ !

गन्‍ध तुम, रट मैं ; अलग भी कब अलग?

पूर्णता मुझमें नहीं, तो क्या हुआ?

तुम स्वयं ढलते रहे ; मैं कब चुआ !

नीर तुम, घट मैं ; अलग भी कब अलग? 1974

52.

अलग भी हैं, लगे भी हैं !

उगा जो चाँद पूनम का,

समुन्‍दर का चलन चमका ;

चकोरों की न कुछ पूछो !

सजग भी हैं, ठगे भी हैं !

खुली पाँखें, लगीं आँखें ;

बँधें, पर किसलिए माँखें?

कमल के कोष में भौरें

बिसुध भी हैं, जगे भी हैं !

कहें क्या, कौन होते हैं--

कि जिन बिन प्राण रोते हैं !

रुलाते हैं, हँसाते हैं !

पराये भी, सगे भी हैं !

1974

53.

कौन कहे, मन अन्‍ध नहीं है !

टहटह लाल अँगार धवल है,

दाह कराल तुहिन-शीतल है ;

पर चकोर गर्वित कि मोर-सा

मेरा मन घन-अन्‍ध नहीं है !

किसकी सुध यों हूक रही है

कोयल बेकल कूक रही है?

मलयज से कहती कि गन्‍ध तो

है, पर उसकी गन्‍ध नहीं है !

फूल-फूल पर मँडराता है,

भ्रमर कहाँ कब बँध पाता है?

सान्‍ध्य कमल की बात और है,

वह गुलाब का बन्‍ध नहीं है !

1974

54.

मिला करें चरणों के फूल रोज-रोज !

घन-घट फूटें, तभी न ढरकेगा नीर ;

छेद सके मर्म, चाहिए ऐसा तीर ;

हुआ करे पनघट पर भूल रोज-रोज !

कौन दे समीर के सवाल का जवाब?

सुबह-सुबह सुर्ख जिसे चाहिए गुलाब?

चुभा करे बुलबुल को शूल रोज-रोज !

स्वर्ग की छुअन से भूच्छ्वास घनीभूत,

पपीहरी पाँखों को बनें बिंदुदूत :

धुला करे आँखों की धूल रोज-रोज !

1974

55.

नदी बहती है नीचे को

सतत बहती ही जाती है !

कभी चढ़ती भी है ऊपर,

उतरती है झरना बनकर,

हुई किस्मत तो सागर तक

पहुँच आखिर यह पाती है !

समुन्‍दर का तपता है जल,

तपस्या का मिलता है फल,

स्वर्ग चढ़ धरती की करुणा

घटा बन वर्षा लाती है !

रीझकर हिमशेखर मानी

सहज बन जाता है दानी

द्रवित हरि-पद-नख-मणि-धारा

उतर धरती पर आती है !

1978

56.

आरती बने मेरे प्राण !

पाँच-पाँच लौ से यह

पंचमुखी दीप

दमक रहा ; चमक रहे

मोती के सीप ;

तृण-तृण तन का है घृत-घ्राण।

अचरज क्या, घर्षण से

जो लगे दवाग?

यहाँ तो नमी से ही

सुलग उठी आग !

तर ही थे उनके भी बाण।

बूँदें बटुरीं, उतरी

गिरि से जलभक्‍ति ;

पतिता में भी प्रकटित

हुई महाशक्‍ति ;

पानी से पिघले पाषाण।

1979

57.

गीत नहीं, करुणा के कण हैं !

संचित फल, अब तक के तप के,

मेरे सघन गगन से टपके ;

माटी जब भींगी तब जाना--

मेरे प्रिय के द्रवित चरण हैं !

यह कभी कैसे कर्कश थे !

अहं-ह्वेष घोड़े सरकश थे ;

कोड़े टूटे, लक्षण छूटे ;

सहज सधे पद, सिंधु-प्रवण हैं !

कंठ भिंगा-भर दें ये सीकर,

रहे जागता पी-पी का स्वर ;

यह भी तो है है दान उन्हीं का !

मेरे दृग ही स्वाति-स्रवण हैं !

1979

58.

भर देते हो अरुण करों से

माँग अमंडित, स्मित आशा की !

तम का आँगन धुल जाता है

कलि-कुल बकुल मुकुल जाता है ;

माटी का मंडन बनने को

तारा- मंडप तुल जाता है

हर लेते हो अनुदय-संशय’

स्वस्ति-ऋचा से खग-भाषा की !

1958

59.

नयन आकाश होना चाहिए तुमको बसाने को ;

बरसना चाहिए घन-सा, तुम्हें बरबस हँसाने को ;

तुम्हारी आँख में मैं जँच गया यों ही नहीं, साक़ी !

कलेजा काढ़ रक्खा था हथेली पर, डँसाने को !!

1961

60.

आप कब आए, कब गए चुपके,

किससे, कैसे मिला किए, छुपके !

चुप रहूँ तो, मगर रहूँ कैसे?

याद जब दिन के पास यों टुपके !

1964

61.

प्यारी तुमको कला तुम्हारी है ;

हमको अपनी ही रीत प्यारी है !

फोलों का भेद मुस्कियों दाबे--

राह हमने भी क्या गुजारी है !!

1964

62.

करुणा, जो पत्थर को पानी कर दे,

आवारा आँखों में भी पलती है !

वन को उनसे मिलता है नवजीवन,

जिनकी चितवन में बिजली चलती है !

1960

63.

ओ नीली छतरीवाली जादूगरनी !

तेरे आगे दुनिया का जादू मात !

जब दिन निकले, तब कहीं कुछ नहीं, लेकिन

रजनी निकले तो तारों की बारात !!

1960

64.

मेरे भीतर आभास तुम्हारा

ऐसी छवि पाता है--

काले बादल की ओट, चाँद

पूनम का मुस्काता है !

1960

65.

सुनते ही शिशु का रुदन, प्रसू की छाती में

लगता है दूध उमड़ने, ममता के मारे ;

मेरे ये आत्मनिवेदन के निश्छन्‍द छन्‍द

सुनते ही तेरा प्यार उमड़ आए प्यारे !

1960

66.

विश्‍वास जहाँ नि:श्‍वास-अर्घ्य बनता है,

ज्योतिष्क-दान तिमिरांचल से छनता है !

1960

67.

दिन जाते देर नहीं लगती, यह तो सच है ;

फिर मुझे रात ही क्यों पहाड़-सी लगती है?

बस एक कुतूहल है कि शिखर चढ़कर देखूँ--

क्या है वह पार-पुकार, मुझे जो ठगती है !

1960

68.

हे सौम्य सूर्य ! तू ऐसा अगर न होता

तो ऐसे दृग कैसे तुझ पर टिक पाते !

तम का पर्दा ही अगर सुलग उठता तो,

द्युति-कर तेरे, किस पर तस्वीर बनाते?

1960

69.

प्रतिदिन, अपने पदगत होते ही, अपने

जन के सिर पर तुम हाथ फेर देते हो !

जल जाय पाप, जो यहाँ पैठना चाहे,

मन्‍त्रित रेखा से हृदय घेर देते हो !!

1960

70.

तेरे चरणों की शपथ ! काँप उठते हैं मेरे हाथ,

कर में होती है कलम, और जब तू रहता है साथ ;

जैसे रिकॉर्ड की सुई, चाव तेरा भाँवर भरता है,

आविष्‍ट भाव का पटलअक्ष पर ध्रुव परिभ्रम करता है।

1960

71.

बस तेरी कृपा भरोसे तेरे द्वारेपड़ा रहूँ,

लग जाय पार इतना ही तो हो जाए बेड़ा पार !

पर यह भी कहाँ देख सह पाती है तेरी महरी,

घर पर आते ही मुझे भगा देती है फिर बाजार !!

1960

72.

क्या करूँ, रोज ही तो इतना धोता हूँ !

पर दगियल ही रह जाता है यह बासन।

मालिक को कौन गरज? जन पर जो बीते !--

बिगड़ैल मालकिन का घर में है शासन !

1960

73.

हर स्वरूप में जब तक तेरा रूप नहीं दिखता है,

कैसे कहूँ कि मेरे मन पर तू कविता लिखता है !

1960

74.

अपने चरणों का रंग चढ़ा दे मन पर--

ऐसा कि आँख का अंजन तक रँग जाए !

सुरमई सीपियों से फूटें जो मोती,

तो आँखों से मानिकमाला टँग जाए !!

1960

75.

हर सुबह लाल चादर जो बिछ जाती है,

पथ के दूषण पर पर्दा पड़ जाता है !

मन की अवनी को चित्राम्बर कर दे,

जिस पर तू किरण-चरण धरता आता है !!

1960

76.

कब तक आँखों पर पर्दा पड़ा रहेगा?

कब तक तुम उघरोगे मेरे दर्शन में?

ओ सूत्रधार ! कब ऐसी कृपा करोगे?

तुम स्वयं स्वरित होगे मेरे व्यंजन में !

1960

77.

निर्वात-- कि दल तक जहाँ नहीं हिलते हैं--

पूजा के फूल वहीं चुपके खिलते हैं !

पाऊँ प्रवेश मैं कैसे, उस कानन में--

किरनों के कोमल पाँव जहाँ छिलते हैं !!

1960

78.

व्याकुल तो हूँ, कैसे उनको पाऊँ,

पर, अगर अचानक दर्शन हो जाएँ,

वे चीन्ह सकेंगे क्या? मैं ही कैसे

सम्मुख कह पाऊँगा?-- स्वागत ! आएँ !

1960

79.

एकान्‍त प्रान्‍त में बन्‍दनवार टँगे हैं,

इस ठौर कौन पाहुन आनेवाले हैं?

‘स्वागतम्’लिखा है चित्रलिखित अम्बर पर;

वन्‍या कन्‍या ने ज्योतिरिंग बाले हैं !

1960

80.

यह शिला भी बड़ी चिकनी है, हिम-पिच्छिल है

कैसे इस पर अपनेपन को ठहराऊँ?

टक लग जाती है, ध्यान डूब जाता है ;

क्या करूँ कि रुचि के पद में अभंग मैं गाऊँ?

1960

81.

जब कभी प्रियपदनखच्छवि कौंध जाती है हृदय में,

चाँदनी झट खींच घन-घूँघट लजाती है हृदय में !

1960

82.

और कुछ न सही, यही कुछ कम नहीं ;

अब अकेले भी अकेले हम नहीं !

आग ही हमने बना ली चाँदनी ;

चाँद अब आए न आए, ग़म नहीं !

रेत पर तिरती हिरन की प्यास है ;

बह रही है आग, आँखें नम नहीं !

जब तपी धरती कि पिघला आसमाँ ;

आँख-सा दिल का कोई हमदम नहीं !

नासमझ आँखें तो बात समझ गईं ;

दिल को क्या कहिए, समझता भ्रम नहीं !

जब हिले लब, नाम उनका आ गया;

होश है यह, ख्वाब का आलम नहीं !

क्यों लगे इनसे किसी को गुदगुदी?

मीड़ के सुर हैं, कोई सरगम नहीं !

परन पर ही लय निभाते जा रहे ;

‘रुद्र’जब आता पकड़ में सम नहीं!

1951

83.

खिलौना बनाकर रहे खेलते वे,

उचट जी गया, चट मुझे तोड़ डाला !

खुद उनकी निगाहों भरा था जो प्याला,

कोई उनसे पूछे कि क्यों फोड़ डाला !

किनारे की रेती से लहरों पे लाकर

ये कैसे भँवर में मुझे छोड़ डाला !

मज़ा आ गया था यहाँ, यह न भूले--

किताबी सफे-सा मुझे मोड़ डाला !

1952

84.

चमन का दिल बहुत घबरा रहा है

कि फूलों का समय फिर आ रहा है !

पँखुरियों में छिपा है भेद कोई--

उघरने में मुकुल शरमा रहा है !

कि गलने औ’गलाने से हुआ क्या?

शिशिर आँसू बहाता जा रहा है !

भला तितली भरम क्यों खो रही है?

भ्रमर का रूप गर भरमा रहा है !

1958

85.

उनको जब मेरी याद आएगी,

एक बिजली-सी कौंध जाएगी !

आँखें तब दिल का साथ देंगी क्या?--

चोट जब होठों मुस्कुराएगी !

मेरी धुन ! मानती नहीं क्यों री?

अब मुझे और क्या बनाएगी?

रोते-रोते मैं जान दे दूँगा--

याद उनको जो यों सताएगी !

मुझसे मत पूछ, शाइरी क्या है,

उनकी तस्वीर ही बताएगी !

‘रुद्र’रोता रहा है तू जिसको

देखना, आके खुद हँसाएगी !

1976

86.

नाम जो पाया प्यार तेरा था ;

मैंने समझा कि काम मेरा था !

तू उतर आया अपनी मर्ज़ी से ;

मैंने समझा कि मैंने टेरा था !

बिजली ही थी कि पार लग गया ;

किस क़यामत का वह अँधेरा था !

रोशनी खींच ले गई बन में ;

देखा तो डाकुओं का डेरा था !

चाँदनी ही तड़प उठी होगी !--

चाँद को बादलों ने घेरा था।

तेरा सपना भी छल गया मुझको ;

होता क्या, हो चुका सवेरा था !

बिगड़ी न रंगत चित्र की तेरे,

क़ल्ब पर तूने जो उकेरा था।

चित्रशिल्पी भी कहेंगे आगे

‘रुद्र’शाइर नहीं, चितेरा था !

1978

87.

मौसमे गुल उधर सुहावन है ;

बस, इधर ही झड़ी है, सावन है !

क्या थी उम्मीद और क्या पाया--

बलि हुए हम, बना वो बावन है !

रात का रंज कम न था हमको ;

दिन तो अब और भी भयावन है !

खैर क्या पूछते हो गुलशन की?--

बागबाँ खुद ही अगलगावन है !

फूँक दे !-- तापने को ही तो है !

घोंसला-घोंसला जलावन है !

कहता है-- पीना है तो यूँ पीओ ;

खूब नासेह की सिखावन है !

क्रान्‍ति अब इससे बढ़के क्या होगी?- -

राम राजा, वज़ीर रावन है !

सड़ गई लाश किस दधीची की?

गीध हैं मस्त-- क्या जिमावन है !

कुत्‍ते जूझेंगे ऐसा, क्या खाकर?- -

जैसी इन पंचों की जुझावन है !

1978

88.

इधर तोपते हैं, उधर झाँपते हैं- -

सड़ा ठाट ही है ! -- वृथा ढाँपते हैं !

इधर कुछ घटाकर, उधर कुछ बढ़ाकर

गुणा क्या करेंगे?-- वो क्या नापते हैं?

जमीं ही ग़लत है-- महल क्या टिकेगा !

क़िला है तो यह ! जीभ क्या जाँपते हैं?

करेंगे दवा मेरी जूड़ी की वो क्या?

मेरे पास आते जो खुद काँपते हैं !

सराब है ; न चेते अगर ‘रुद्र’तो फिर

मरेंगे, जिधर जा रहे हाँपते हैं !

1978


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हिंदी समय में राम गोपाल शर्मा रुद्र की रचनाएँ